सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी को दिए नए आयाम

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी को दिए नए आयाम

नई दिल्ली । उच्चतम न्यायालय के एक ताजा फैसले ने देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी के साथ साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे विषय को नए आयाम दिए हैं। दरअसल एक टीवी समाचार चैनल जो सनसनीखेज और महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ खबरें प्रसारित करने के लिए जाना जाता था, कुछ समय से वह खुद खबर बना हुआ था। जिस प्रकार से दो साल पुराने एक बंद हो चुके केस में राज्य सरकार द्वारा उस चैनल के वरिष्ठ पत्रकार व मालिक को गिरफ्तार किया गया, उसने देश के लोकतंत्र को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था। निचली अदालतों से मायूसी के बाद आखिर सात दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत प्रदान की।

इस पूरे घटनाक्रम ने देश में अनेक विमर्शो को एक साथ जन्म दे दिया। इस विषय को लेकर इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों पर भी देश के लोगों की सक्रियता देखने लायक थी। जैसाकि अमूमन होता है, समाज दो पक्षों में बंट गया था। एक पक्ष का मानना था कि उस न्यूज चैनल का मालिक देश में होने वाली साजिशों को बेनकाब करते करते खुद एक साजिश का शिकार हो गया। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पक्ष उस चैनल के मालिक के प्रति विशेष सहानुभूति रखता था, क्योंकि वह सरकार के खिलाफ जनता की आवाज बुलंदी के साथ रखता था।

जबकि दूसरे पक्ष का कहना था कि सबकुछ कानून के दायरे में हुआ है और कानून के आगे सब बराबर हैं। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने इस मामले में महाराष्ट्र सरकार और निचली अदालतों के रवैये पर सख्त लहजे में टिप्पणी की तो देश के न्यायतंत्र पर आमजन का भरोसा एक बार फिर मजबूती से कायम हुआ। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना था, किसी की निजी स्वतंत्रता पर अंकुश न्याय का दमन होगा। आज अगर अदालत दखल नहीं देती है तो हम विनाश के रास्ते पर जा रहे हैं। आप उसकी विचारधारा पसंद नहीं करते, हम पर छोड़ दें, हम उसका चैनल नहीं देखेंगे। अगर हमारी राज्य सरकारें ऐसे लोगों के लिए यही कर रही हैं, इन्हें जेल में जाना है तो फिर सुप्रीम कोर्ट को दखल देना होगा। इतना ही नहीं, उन्होंने हाईकोर्ट द्वारा उस पत्रकार को जमानत नहीं देने के फैसले को भी गलत बताया।

जस्टिस चंद्रचूड़ के ये कथन निश्चित ही भविष्य में इस प्रकार के मामलों के लिए नजीर बनेंगे, क्योंकि यह बात भले ही शुरू प्रेस की आजादी या मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी से हुई थी, पर जिस प्रकार से देश के आम जनमानस ने खुद को इस मुद्दे से जोड़ा, वह अप्रत्याशित था। वहीं दूसरी ओर जिस प्रकार से देश की मीडिया का एक बड़ा वर्ग, जो आम तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी जैसे विषयों पर लामबंद हो जाता था, उसने खुद को इस मुद्दे से अलग रखा, वह निराशाजनक था। दरसअल जब किसी सभ्यता में सही और गलत होने की परिभाषा पॉलिटिकली और लीगली करेक्ट यानी राजनीतिक या कानूनी रूप से सही होने तक सीमित हो जाती है तो नैतिकता का कोई स्थान ही नहीं रह जाता। इतिहास गवाह है कि सभ्यता के विकास के साथ नैतिक और सामाजिक मूल्यों का पतन होता जाता है।

नीति और नैतिकता : रामायण काल में राजा द्वारा नीति नैतिकता के तराजू में तौली जाती थी और जो नैतिक रूप से सही हो, उसी नीति का अनुसरण किया जाता था। लेकिन महाभारत का काल आते आते नीति महत्वपूर्ण हो गई और नैतिक मूल्य पीछे छूट गए। यही कारण था कि भीष्म पितामह, गुरु द्रोण और विदुर जैसे विद्वानों की सभा में इतिहास के सबसे अनैतिक कृत्य को अंजाम दिया गया। नीति के विद्वान समझे जाने वाले विदुर को भी दुर्योधन के तर्को ने बेबस और असहाय कर दिया था। इतिहास का शायद वह पहला ऐसा उदाहरण था, जिसमें सत्ता के नशे में ऐसे कृत्य को अंजाम दिया गया, जो नीति के तर्को से भले ही सही रहा हो, लेकिन मूल्यों के तराजू पर अधर्म था। आज नीति ने कानून का रूप ले लिया है। तो क्या आज हमारी सभ्यता उस मोड़ पर खड़ी है जहां कानून की धाराएं महत्वपूर्ण हैं, उनके पीछे छिपे भाव नहीं।

इस पत्रकार की गिरफ्तारी ने देश में यह संदेश पहुंचाया था कि जिस कानून का सहारा आम आदमी न्याय की आस में लेता है, कैसे वह कानून खुद अपने दुरुपयोग से असहाय और बेसहारा नजर आता है। चूंकि यहां प्रश्न एक पत्रकार की गिरफ्तारी पर नहीं था, बल्कि गिरफ्तारी के तरीके पर था। प्रश्न केवल कानूनी प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उसके दुरुपयोग का भी था।

इतना ही नहीं, उस चैनल के प्रसारण को बंद करवाने के प्रयास संबंधी भी कई बातें सामने आई थीं। ये सभी तथ्य उस पत्रकार पर हुई कानूनी कार्रवाई के कारण और नीयत, दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे थे। तथ्य इस ओर इशारा कर रहे थे कि पालघर में साधुओं की हत्या और बहुचíचत सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या जैसे केसों में सच सामने लाने का जुनून उन्हें इस मोड़ पर ले आया। शायद यही वजह रही कि आम लोगों की सहानुभूति उस पत्रकार के साथ थी।

इसलिए आज जब उस पत्रकार से देश का आम आदमी खुद को जोड़कर देख रहा था, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने केवल उस पत्रकार को राहत नहीं दी है, बल्कि देश के लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था पर नागरिकों के विश्वास की नींव और मजबूत की है।

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