शहादत का अपमान क्यों? 21 साल से ठोकरें खाकर हार चुके कारगिल शहीदों के परिवार

शहादत का अपमान क्यों? 21 साल से ठोकरें खाकर हार चुके कारगिल शहीदों के परिवार

नई दिल्ली : कारगिल युद्ध के दो दशक बीत जाने के बाद आज भी शहीद के परिवार अपने हक और सम्मान के लिये दर दर की ठोकरें खाकर सरकारी तंत्र के आगे हार मान चुके हैं। राजस्थान में झुंझुनू जिले के बासमाना के शहीद हवासिंह का परिवार सरकार द्वारा घोषित सहायता का अब भी इंतजार कर रहा है। सरकार ने पहले ही परिवार को सरकारी निर्णय के मुताबिक सहायता नहीं दी। फिर जो दिया वह भी छीन लिया। शहीद परिवार से उनके जीवन यापन के लिए दी गई सुविधाओं को छीनने वाली यह दास्तां सरकारी तंत्र की हकीकत बयां करती है।

शहीद की पत्नी को नहीं मिली नौकरी 
बासमाना गांव उस दिन गौरवान्वित हुआ जब यहां का लाडला हवासिंह कारगिल युद्ध में शहीद हो गया। जब हवासिंह का शव तिरंगे में लिपटा हुआ गांव पहुंचा तो सभी की आंखें नम थी। उस समय सरकार ने शहीदों को कई सुविधायें मुहैया कराने की घोषणा की थी। उसमें पेट्रोल पम्प, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी आदि शामिल थीं, लेकिन शहीद की पत्नी मनोज देवी को एमए बीएड तक पढ़ी होने के बाद भी नौकरी नहीं मिली। परिवार के जीवनयापन करने के लिए जो पैट्रोल पंप मिला, उसे कुछ साल बाद ही कंपनी ने धोखे से वापिस ले लिया। अब केवल दफ्तरों के चक्कर लगाने के अलावा परिवार के पास कोई चारा नहीं है। शहीद के परिजन बताते है कि उन्होंने सरकारी तंत्र में अपनी सुविधाओं को दम तोड़ते देखा है। अब वे खुद हारकर बैठ गए है और अब उन्हें उम्मीद भी कम ही है कि उन्हें जो सहायता मिलना थी वह उन्हें मिलेगी। हालांकि पति की शहादत से दो वर्ष पहले सुहागन हुई शहीद वीरांगना को अब भी पति के शहीद होने पर जो सम्मान मिला उस पर उसे अब भी गर्व है।

आज भी सम्मान का इंतजार कर रहा परिवार 
बासमाना फौजियों का गांव भी है। यहां के पूर्व फौजी बाबूलाल ने बताया कि हवा सिंह भी उम्र में छोटा था। लेकिन देश के लिए उसके जज्बात कहीं पर भी छोटे नहीं थे। होनहार था, जिसको शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है। कारगिल की लड़ाई में शहीद हुए जिले के सीथल गांव के शहीद हवलदार मनीराम की शहादत को दो दशक से ज्यादा का समय बीत गया, लेकिन अब भी शहादत का सम्मान देने में सरकार कोई ज्यादा चिंतित नजर नहीं आई है। शहीद के दो बेटे नौकरी का इंतजार कर रहे हैं। तो वहीं जिस स्कूल का नामकरण शहीद के नाम से किया गया। वह भी अब बंद हो गया है। सीथल के शहीद हवलदार मनीराम महला वर्ष कारगिल युद्ध के दौरान ऑपरेशन विजय में दुश्मनों से लोहा लेते तीन जुलाई 1999 को शहीद हो गए और शहादत के तीन दिन बाद छह जुलाई 1999 को उनका शव उनके गांव पहुंचा। ग्रामीण बताते है कि 1999 में जब गांव में पहली बार किसी शहीद का शव आया उस वक्त का जो गांव का माहौल था, उसे याद करके आज भी लोग भावुक हो जाते हैं। शहीद परिवारों को सम्मान देने की बातें तो बड़ी बड़ी होती है, लेकिन दो दशक बीत जाने के बाद भी मनीराम के परिवार को अब भी सम्मान नहीं मिला है। जो सम्मान मिला, वह भी वापिस हो चुका है।

सरकार के साथ बदल गए नियम
शहीद वीरांगना मुन्नीदेवी ने बताया कि जब उनके पति शहीद हुए थे तो उन्हें बताया गया था कि उनके बेटों में से एक को सरकारी नौकरी मिलेगी, लेकिन सरकार बदली तो नियम भी बदल दिया गया। अब सरकारी नौकरी के लिए वे दो दशक से चक्कर लगा रही हैं। इसके अलावा गांव की जिस स्कूल का नामकरण उनके पति के नाम से किया गया था। वह भी मर्ज कर दिया गया है। शहीद मनीराम ने द्रास सेक्टर में दुश्मनों से लोहा लिया और वीरगति को प्राप्त हुए, लेकिन अब उनका परिवार सरकारी तंत्र से लोहा ले रहा है, लेकिन न तो शासन और न ही प्रशासन इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है जो वास्तव में शहादत का अपमान है।   न केवल हवासिंह एवं मनीराम बल्कि दर्जनों कारगिल शहीदों के परिवारों को मिलने वाली सरकारी नौकरियां लाल फीताशाही में दब गई हैं। कुछेक को मिली और कुछेक रह गए, लेकिन सरकार आई और गई, नेता आए और गए। आश्वासन सभी नहीं दिए। लेकिन इनके दुखों को मरहम लगाने का काम किसी ने नहीं किया।

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