ओपिनियन: चीन के प्रभाव में नेपाल, योगी आदित्‍यनाथ बन सकते हैं भारत के सूत्रधार

ओपिनियन: चीन के प्रभाव में नेपाल, योगी आदित्‍यनाथ बन सकते हैं भारत के सूत्रधार


नई दिल्ली निकट सहयोगी कहे जाने वाले दो पड़ोसी देशों भारत और नेपाल के राजनीतिक गलियारे में तनाव काफी बढ़ गया है। ऐसे में सभी के मन सवाल है कि आखिर ऐसा क्या हो गया की सदियों पुरानी दोस्ती और आम तौर पर मधुर रहने वाले रिश्तों में हाल के दिनों में इतनी कड़वाहट आ गयी कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने यहां तक कह दिया कि ‘भारतीय कोरोना’ ‘चाइनीज कोरोना’ से ज्यादा खतरनाक है। दरअसल, इस कड़वाहट की वजह हाल के दिनों में भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद जो एक बार फिर से सतह पर उभर कर सामने आ गया है।

ताजा मामला नेपाली कैबिनेट की ओर से पास किए गए नए राजनीतिक नक्शे को लेकर है। इस मानचित्र में भारतीय क्षेत्र लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाली क्षेत्र में दर्शाया गया है। भारत के उत्‍तराखंड राज्य के बॉर्डर पर नेपाल-भारत और तिब्‍बत के ट्राई जंक्‍शन पर स्थित कालापानी करीब 3600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। भारत का कहना है कि करीब 35 वर्ग किलोमीटर का यह इलाका उत्‍तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का हिस्‍सा है। उधर, नेपाल सरकार का कहना है कि यह इलाका उसके दारचुला जिले में आता है।

1962 से आईटीबीपी के जवानों का कब्‍जा
वर्ष 1962 में भारत-चीन के बीच युद्ध के बाद से इस इलाके पर भारत के आईटीबीपी के जवानों का कब्‍जा है। दोनों देशों के बीच विवाद महाकाली नदी के उद्गम स्‍थल को लेकर है। यह नदी कालापानी इलाके से होकर गुजरती है। भारत और नेपाल के बीच ये सीमा विवाद काफ़ी पुराना है। इसकी शुरुआत वर्ष 1816 में सुगौली की संधि से हुई थी। इस संधि के अनुसार, महाकाली नदी के पूर्व में पड़ने वाली सारी ज़मीन नेपाल के हिस्से में आती है। इस संधि के बाद, नेपाल का दावा है कि लिपुलेख, लिंपियाधुरा और और कालापानी उसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं, जबकि, हकीकत यह है कि भारत की सीमा से लगे ये विवादित क्षेत्र, महाकाली नदी के उद्गम स्थल से दक्षिण पूर्व इलाके में पड़ते हैं।

नेपाल के इस दावे का भारत यह कह कर प्रतिरोध करता रहा है कि सुगौली की संधि के अंतर्गत इस धारा के उत्तर वाले हिस्से की सीमा को पूरी तरह से निर्धारित नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त, उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशक से प्रशासनिक एवं राजस्व के रेकॉर्ड बताते हैं कि कालापानी इलाक़ा वास्तव में भारत के पिथौरागढ़ ज़िले का हिस्सा रहा था। विवाद, नेपाल के इस दावे पर भी है कि महाकाली नदी का उद्गम कहां से होता है। नेपाल जिस स्थान से महाकाली नदी का उद्गम बताता है, वह महज़ ‘लिपु गाद’ नाम की एक बरसाती नदी का शुरुआती स्थल है।

यह महाकाली नदी में मिलने वाली तमाम सहायक नदियों में से एक छोटी सी धारा भर है। इसी कारण से, नेपाल के इस दावे का भारत ये कह कर प्रतिरोध करता रहा है कि सुगौली की संधि के अंतर्गत इस धारा के उत्तर वाले हिस्से की सीमा को पूरी तरह से निर्धारित नहीं किया गया है। कई जानकार नेपाल के रवैये में आई आक्रामकता को मोदी सरकार की नेपाल नीति की विफलता मान रहे हैं और कुछ इस प्रकरण के पीछे नेपाल की राजनीति के अंदरूनी दाव-पेंच कारक मान रहे हैं। लेकिन तेजी से बदलते नेपाल के रवैये को समझने के लिए हमें अक्टूबर 2019 में घटित एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम को याद करना पड़ेगा।

भारत के ठीक बाद नेपाल गए थे चीनी राष्‍ट्रपति शी चिनफिंग
पिछले साल अक्टूबर में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग नेपाल के दौरे पर थे। 1996 में जियांग जैमिन के बाद ये पहले चीनी राष्ट्रपति थे जिन्होंने नेपाल का दौरा किया। इस दौरान नेपाल के साथ कई समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए जिसमें चीनी राष्ट्रपति की महत्वाकांक्षी योजना ‘बेल्ट एन्ड रोड इनिशिएटिव’ शामिल थी। हालांकि शेष दक्षिण एशिया के देशों जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव की तुलना में चीन की ओर से नेपाल में निवेश काफी कम रहा है। लेकिन इस दौरे ने यह सुनिश्चित किया की आने वाले वक्त में ये स्थिति बदलती दिखाई पड़ेगी।

दरअसल, हिमालय के परिदृश्य पर आज एक नया ‘ ग्रेट गेम’ खेला जा रहा है। विश्व की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका, नेपाल से संबंध मजबूत करने के लिए ठोस प्रयास कर रहा ताकि उसे अपनी इंडो-पैसिफिक स्ट्रेटजी को बल मिल सके। चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ और दूसरे प्रॉजेक्ट से उत्पन्न होती सामरिक चिंता के सापेक्ष अमेरिका दृढ़ प्रतिक्रिया देना चाहता है, ताकि क्षेत्र में शक्ति संतुलन स्थापित रह सके। अमेरिकन नीति के संदर्भ में तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि भारत, अपना समर्थन अमेरिका के इंडो- पैसिफिक स्ट्रेटजी को देगा, जिससे वहां चीन के प्रभाव को कम किया जा सके।

वजह भी वाजिब है क्योंकि नई दिल्ली इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स के जरिए बीजिंग के बढ़ते प्रभाव की बराबरी नहीं कर पा रहा। दीगर है कि आज नेपाल में हो रहे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में सबसे बड़ा हिस्सा चीन का है। यही नहीं वह नेपाल का विश्व मे दूसरा सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है। भारत ने भी नेपाल के आधारभूत विकास को प्राथमिकता प्रदान करते हुये उसे विभिन्न क्षेत्रों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, पेय जल, आवास, शोध, प्रशिक्षण, संस्कृति, खेल आदि क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में सहयोग किया है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि नई दिल्ली वह सुसंगत नीति बनाने में विफल रही, जिससे इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण को क्षेत्रीय विकास से जोड़ा जा सके।

चीन कई मामलों में नेपाल की प्राथमिकता बना
नेपाल हमेशा से ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से भारत के नजदीक रहा है। नेपाल चीन के लिए भी बहुत आवश्यक है क्योंकि इसकी सीमाएं तिब्बत से लगी हैं। चीन, नेपाल में अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिये उसे एक ‘बफर जोन’ की तरह स्थापित करना चाहता है। इससे उसके दो बड़े हित सधते हैं, एक तो किसी पश्चिमी देश की ओर से चीन को अस्थिर करने की संभावना कम होती है। दूसरा, भारत पर सामरिक दबाव बनाने की उसकी चिर अभिलाषा पूरी होती है। काठमांडू ने पहले कई बार ये संकेत दिए हैं कि वह भारत और चीन के मध्य एक संतुलन बनाये रखना चाहता है। प्रधानमंत्री ओली जिन्हें बीजिंग का करीबी माना जाता है, ने भी नेपाल के साथ दोनों देशों के रिश्तों में संतुलन बनाने का समर्थन किया है।

बावजूद इसके चीन कई मामलों में नेपाल की प्राथमिकता बनता नज़र आ रहा है। वास्तव में, भारत और नेपाल केवल पड़ोसी देश नहीं हैं बल्कि इनका सदियों पुराना नाता है जो इन्हे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक रूप से जोड़ता है। नेपाल से भारत का रिश्ता रोटी और बेटी का है। नेपाल भारत के लिए सामरिक और रणनीतिक महत्व का है। भारत के पांच राज्यों की सीमा नेपाल से लगती है, इस कारण नेपाल में उत्पन्न अस्थिरता भारत को भी प्रभावित करती है। इस सीमा विवाद से परे, भारत और नेपाल का आपसी सहयोग का लंबा इतिहास रहा है और दोनों ही देश, इससे पहले उस वक़्त के सीमा विवादों को कूटनीतिक संवाद के माध्यम से सफलतापूर्वक हल करते आए हैं।

भारत-चीन विवाद के बीच नेपाल ने उठाया मुद्दा
भारत सरकार ने सीमा तक सड़क निर्माण को महज़ कैलाश मानसरोवर तक पहुंचने वाली सड़क का नाम दिया है। कैलाश मानसरोवर हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। अब तक यहां जाने के लिए केवल दो ही रास्ते उपलब्ध थे, या तो यहां नाथू-ला के रास्ते जाया जा सकता था या फिर नेपाल के रास्ते। दोनों ही मार्ग बेहद मुश्किल हैं। धारचुला तक इस सड़क के बन जाने से कैलाश मानसरोवर की तीर्थ यात्रा पर जाना बेहद आसान भी हो जाएगा और इससे काफ़ी समय भी बचेगा। भारत के इस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण रखने के कई अन्य स्पष्ट लाभ भी हैं। इस सड़क के बन जाने से भारत और चीन के बीच इस रास्ते से व्यापार में काफ़ी वृद्धि होने की संभावना है।

भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हो सकती है। मगर, नेपाल का हालिया विरोध उस समय देखने में आया है, जब भारत और चीन के सैनिकों के बीच सीमा पर दो जगहों पर संघर्ष देखने को मिला था। कालापानी सीमा को लेकर भारत की चिंताओं को थल सेनाध्यक्ष जनरल एमएम नरवणे ने उस वक़्त बख़ूबी रेखांकित किया था, जब उन्होंने कहा था कि हो सकता है कि नेपाल ने सीमा पर ये विवाद, ‘किसी अन्य देश के कहने पर खड़ा किया हो।’ थल सेनाध्यक्ष के इस बयान का इशारा चीन की तरफ़ था। भारत की सुरक्षा और सामरिक संस्थान देर से ही सही लेकिन अब हिमालय के अंचल में चल रहे नए ‘ग्रेट गेम’ को समझ गए हैं।

हालांकि, नेपाल के प्रधानमंत्री के. पी. ओली ने कहा है कि कि, ‘हम जो भी करते हैं अपने हितों को ध्यान में रख कर करते हैं’, लेकिन भारत में बहुत से सामरिक विशेषज्ञों का ये मानना है कि नेपाल के कालापानी सीमा पर विवाद फिर से खड़ा करने के पीछे चीन के सामरिक लक्ष्य हो सकते हैं। भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हो सकती है। मगर, नेपाल का हालिया विरोध उस समय देखने में आया है, जब भारत और चीन के सैनिकों के बीच सीमा पर दो जगहों पर संघर्ष देखने को मिला था। बीते 10 मई को भारत और चीन और भारत के सैनिकों के बीच पूर्वी लद्दाख में पैंगॉन्ग त्सो झील के पास, सिक्किम के नाकू ला में संघर्ष हुआ था।

इसके ठीक पहले 9 मई को नेपाल ने आधिकारिक रूप से भारत के लिपुलेख सीमा के लिए सड़क के उद्घाटन को एकतरफ़ा कार्रवाई बताया था। साथ ही भारत को चेतावनी दी थी वह नेपाल की सीमा के भीतर कोई गतिविधि न करे। भारत और नेपाल के बीच अविश्वास की इस बढ़ती खाई के पीछे, नेपाल के घरेलू मामलों में चीन के बढ़ते दखल को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है। चीन, पिछले एक दशक से नेपाल के वामपंथियों को समर्थन देता आ रहा है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के साथ, चीन का नेपाल की अंदरूनी राजनीति में दखल शीर्ष पर पहुंच गया था।

नेपाल के लोगों में गुरु गोरखनाथ के प्रति गहरी आस्‍था
इस वक़्त इस बात की ज़रूरत है कि भारत अपने पड़ोसी देश नेपाल के साथ सीमा विवाद हल करने के लिए साझा व्यवस्था विकसित करे, ताकि मौजूदा हालात को बदल सके। आज जरूरत है कि नेपाल की जनता को विश्वास में लिया जाए। उन्‍हें यह बताया जाय कि भारत ही उनका वास्तविक हितैषी है। साथ ही एक ‘आउट ऑफ़ बॉक्स’ उपाय भी है जिससे दोनों देशों की जनता को जोड़ा जा सकता है। नेपाल में राजशाही के अंत और उसके बाद साम्‍यवाद के नाम पर बनी सरकारों ने चीन के प्रभाव में कई काम किए। लेकिन ये सरकारें भी नेपाल की जनता के मन और दिल से गुरु गोरखनाथ को निकाल नहीं पाईं।

वामपंथियों ने 2006 के बाद से नेपाली करेंसी से गुरु गोरखनाथ का चित्र और चरण पादुका तो हटा दी लेकिन उनके द्वारा नेपाल का एकीकरण करने वाले महाराणा पृथ्‍वीनारायण शाह को दी कटार का प्रतीक हटाने का साहस नहीं जुटा पाईं। नेपाल के कोने-कोने में गुरु गोरखनाथ, उनके गुरु मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ की कहानियां प्र‍चलित हैं। तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद आज भी नेपाल शाही परिवार सहित बड़ी संख्‍या में नेपाल के नागरिकों की खिचड़ी गोरखनाथ मंदिर में चढ़ती है। नेपाल शाही परिवार गुरु गोरखनाथ को अपना राजगुरु मानता रहा। नेपाल और नाथ पंथ एक-दूसरे में ऐसे रचे-बसे हैं कि शासक वर्ग भले चीन की भाषा बोलने लगे लेकिन नेपाल की जनता हमेशा भारत के स्‍वर में ही स्‍वर मिलाकर बोलेगी।

नेपाल को साधने में मददगार हो सकते हैं योगी आदित्‍यनाथ

यह अपने आप में एक विशिष्‍ट उदाहरण है कि गोरखा भारतीय सेना का एक गौरवशाली हिस्‍सा हैं। वे भारत के लिए जीते-मरते हैं। नेपाल से सदियों पुराने सामाजिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिक, आध्‍यात्मिक और राजनीतिक रिश्‍तों के बावजूद हाल के वर्षों में बार-बार कड़वाहट के अनुभवों की वजह भले किसी तीसरे देश की स्‍वार्थपरता हो लेकिन इसका समाधान भारत के पास ही है। नेपाल से संबंध ठीक रखने हैं तो इसका एक सरल मार्ग गुरु गोरखनाथ का नाथ पंथ भी हो सकता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और गोरक्ष पीठाधीश्वर इसमें सहायक सिद्ध हो सकते हैं। यह वह सूत्र है जिससे बंधकर नेपाल की जनता और वहां का शासक वर्ग हमसे अलग होने के बारे में सोच भी नहीं सकता।

उधर, सीमा विवाद हल करने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जो नेपाल के साथ उठे विवाद जैसे मसलों को समझदारी और कुशलता से निपटा सके। इससे भारत के एक ज़िम्मेदार क्षेत्रीय शक्ति होने की छवि को मज़बूती मिलेगी। भारत एक ऐसी शक्ति के तौर पर उभर सकेगा, जो अपने क्षेत्रीय पड़ोसियों की चिंताओं की अनदेखी नहीं करता है। इसी तरह नेपाल को भी यह समझना होगा कि प्रधानमंत्री ओली के हालिया बयानों की तरह का भारत के प्रति उनका बेक़ाबू रवैया, उन्हें ऐसे विवादों के समुचित समाधान की दिशा में नहीं ले जाएगा।

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