कभी रेवड़ी तरह बंटती थी पीएचडी की डिग्री, गुणवत्ता बढ़ी तो घटने लगी संख्या

कभी रेवड़ी तरह बंटती थी पीएचडी की डिग्री, गुणवत्ता बढ़ी तो घटने लगी संख्या

एक समय था जब कॉलेजों में पीएचडी की डिग्री रेवड़ी की तरह बंटती थी। पोस्ट ग्रेजुएशन में 50 फीसदी नंबर पाओ और करा लो पीएचडी में रजिस्ट्रेशन। लेकिन यूजीसी के सख्त नियमों के बाद अब पीएचडी करने वालों की संख्या घटती जा रही है। पहले जहां एक साल में पांच सौ से नौ सौ तक डिग्री अवार्ड होती थीं। वहीं अब इनकी संख्या हर साल सौ के करीब रह गई है। शोध में सख्ती से पढ़ाई की गुणवत्ता में भी सुधार आया है।

सीसीएसयू से संबद्ध एडेड और राजकीय कॉलेजों की संख्या 68 है। मेरठ और सहारनपुर मंडल के इन कॉलेजों में शिक्षकों की संख्या 1000 हजार के करीब है। सन 1985 तक पीएचडी की डिग्री लेना बेहद मुश्किल था। उस समय बहुत कम छात्र-छात्राएं पीएचडी कर पाते थे। डिग्री कॉलेजों में शिक्षक भी इस वक्त तक 20 फीसदी ही पीएचडी होते थे।

1990 के आसपास शिक्षकों को रीडर पद नाम के लिए पीएचडी अनिवार्य हुई। इसके बाद से पीएचडी की संख्या बढ़ने लगी। सबसे ज्यादा पीएचडी 1992 से वर्ष 2007 तक हुई। साल 2009 में यूजीसी ने नियमों में सख्ती की तो इसके बाद से स्थिति बदलने लगी। पिछले चार सालों की बात करें तो पीएचडी की डिग्री करने वालों की संख्या घटी है। इसका कारण यूजीसी के सख्त नियमों का होना है। शोध में चोरी पकड़ा जाना भी है। अब कट पेस्ट शोध नहीं चल सकता है। ऐसे में इससे शोध में गुणवत्ता भी बढ़ रही है।

छात्रों को सिखाया मेहनत करना
मेरठ कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ. एसके अग्रवाल बताते हैं कि उन्होंने सन 1964 में मेरठ कॉलेज में ज्वाइन किया था। उस समय तक शिक्षक की अर्हता पीएचडी नहीं थी। पोस्ट ग्रेजुएशन में फर्स्ट क्लास आने वालों को तो सीधे नियुक्ति मिल जाती थी। उन्होंने सन 1985 में पीएचडी की। डॉ. अग्रवाल बताते हैं कि उनके गाइड ने साफ कर दिया था कि मेरे अंडर में पीएचडी करनी है तो काम करना पड़ेगा। ऐसे में वे दिन-रात काम करते थे।

वे बताते हैं कि हमने शिक्षा में गुणवत्ता पर हमेशा ध्यान दिया। यही वजह रही कि उन्होंने सिर्फ 12 छात्रों को पीएचडी कराई। डॉ. एसके अग्रवाल छात्रों से साफ कर देते थे, उनके अंडर में तभी शोध कराएंगे जब आप मेहनत करोगे। डीएन कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ. हरेंद्र कुमार बताते हैं कि पीएचडी में अब पिछले कुछ सालों से गुणवत्ता में सुधार आया है। इसकी वजह से शोध की संख्या घट रही है।

1966 से 2003 तक डीएन कॉलेज में रहे डॉ. हरेंद्र कुमार का कहना है कि उनकी नियुक्ति 1966 में डीएन में हो गई। उन्होंने सन 1975 में बीएचयू कानपुर से पीएचडी की। बताते हैं कि दो साल की कॉलेज से छुट्टी लेकर गया था। रात को एक-एक बजे तक कार्य करते थे। लेकिन सन 1990 के बाद तो पीएचडी की डिग्री रेवड़ी की तरह बांटी गईं। अब इसमें बदलाव आ रहा है।

ये भी है घटने की वजह
सीसीएसयू में साल 2016 में पीएचडी के लिए अंतिम बार प्रवेश प्रक्रिया कराई थी। इसके बाद से कोई परीक्षा नहीं हुई है। दरअसल, विवि ने नेट, गेट, जेआरएफ, एमफिल उत्तीर्ण छात्रों को सीधे पीएचडी में रजिस्ट्रेशन करने के लिए 60 फीसदी कोटा तय कर दिया है। इसके अलावा यूजीसी के नियमों के मुताबिक अब पीजी वाले कॉलेज ही पीएचडी करा सकते हैं। शिक्षकों का रिटायरमेंट भी हो रहा है। जिसके चलते पीएचडी की सीटें कॉलेजों में घट गई हैं।

10 साल में सात हजार, तीन साल में 301
कैंपस में साल 2006 से 2016 तक 10 साल में जहां सात हजार पीएचडी अवार्ड हुईं। पिछले तीन साल में सिर्फ 301 ही पीएचडी अवार्ड हुई हैं। इस साल 110, 2018 में 99 और 2017 में 92 ही पीएचडी अवार्ड हुईं। अब तक विवि और कॉलेजों में पीएचडी की बात करें तो 15 हजार के करीब पीएचडी अवार्ड हुईं। जिनमें से विवि की सेंटर लाइब्रेरी में 13915 थीसिस मौजूद हैं।


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