भाजपा ने जिस जोर-शोर से अपना 42वां स्थापना दिवस मनाया, उसका महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि वह भारतीय राजनीति का सशक्त केंद्र बिंदु बन गई है। भाजपा ने हाल में हुए पांच राज्यों के चुनावों में से उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों में शानदार जीत हासिल कर देश को यही संदेश दिया कि फिलहाल उसके मुकाबले में कोई नहीं। आज यदि भाजपा अपराजेय दिख रही है तो इसका बड़ा कारण है, उसकी रीति-नीति पर देश की जनता का भरोसा। यह एक तरह का राजनीतिक चमत्कार ही है कि 1980 में गठित जिस भाजपा के पास 1984 में केवल दो लोकसभा सदस्य थे, वह आज तीन सौ से अधिक लोकसभा सदस्यों से लैस है और उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के पास इतने भी सांसद नहीं कि वह नेता प्रतिपक्ष का दर्जा हासिल कर सके।
भाजपा अन्य दलों से इसलिए अलग है, क्योंकि उसने समय के साथ अपने तौर-तरीके तो बदले, लेकिन अपनी मूल विचारधारा से समझौता नहीं किया। उस समय भी नहीं, जब वह अटल-आडवाणी के समय केंद्र में साझा सरकार चला रही थी। भाजपा ने अपने विस्तार के क्रम में दूसरे दलों के नेताओं को भी साथ लिया और अन्य दलों से गठबंधन भी किया। अन्य दलों से भाजपा में आए कुछ नेताओं ने तो उसकी विचारधारा को अपना लिया, लेकिन कई ऐसे भी रहे, जो केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए उससे जुड़े। इनमें से कुछ तो अपना स्वार्थ पूरा करने के बाद उससे अलग भी हो गए।
उत्तर प्रदेश में हाल के चुनाव के ठीक पहले कई ऐसे नेताओं ने भाजपा का साथ छोड़ा, जो 2016-17 में उससे जुड़े थे। साफ है कि ऐसे नेताओं ने दिखावे के लिए भाजपा की विचारधारा को अपनाया। उनका उद्देश्य केवल सत्ता की मलाई चखना था। ऐसे कुछ नेता बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले भी भाजपा में आए थे। इनमें से कुछ चुनाव खत्म होते ही वापस तृणमूल कांग्रेस में लौट गए। इससे भाजपा की किरकिरी ही हुई। ऐसे अवसरवादी नेता न तो भाजपा की विचारधारा को अपना पाते हैं और न ही पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं नेताओं से सामंजस्य बैठा पाते हैं। भाजपा के लिए यह चुनौती है कि वह महज अपना स्वार्थ साधने वाले दूसरे दलों के अवसरवादी नेताओं से कैसे दूरी बनाए, क्योंकि वे भाजपा के प्रतिबद्ध नेताओं और कार्यकर्ताओं का हक छीनते हैं।
यह अच्छा है कि भाजपा ने अपने 42वें स्थापना दिवस के पहले ही परिवारवादी राजनीति के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते कुछ समय में जिस तरह कई अवसरों पर परिवारवाद की राजनीति को लोकतंत्र के लिए जहर बताया है, उससे विरोधी दलों को चेत जाना चाहिए। भाजपा इस मुद्दे को प्रभावशाली तरीके से इसलिए सतह पर लाने में सफल हो रही है, क्योंकि उसने नेतृत्व के स्तर पर परिवारवाद को कभी पोषित नहीं किया, जबकि कांग्रेस समेत अधिकांश क्षेत्रीय दलों की राजनीति परिवारवाद का ही पर्याय बन गई है। कई दल तो ऐसे हैं, जिनमें पार्टी का नेतृत्व सदैव परिवार विशेष के पास ही रहता है। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं कि ऐसे दलों की संख्या बढ़ती जा रही है। विपक्षी दलों के जो नेता भाजपा नेताओं के उन बेटे-बेटियों का उल्लेख कर उस पर निशाना साधते हैं, जिनके माता-पिता भी पार्टी में हैं, उन्हें इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि जो भी नेता भाजपा अध्यक्ष बने, उनमें से कोई किसी पार्टी नेता की संतान नहीं। इनमें से कई तो अपने प्रारंभिक राजनीतिक जीवन में पार्टी के साधारण कार्यकर्ता थे। आखिर भाजपा और हाशिये पर जाते वाम दलों को छोड़कर अन्य दलों में ऐसे कितने नेता शीर्ष पर पहुंच सके हैं। वे तो इस बारे में सोच भी नहीं सकते।
चार दशकों की भाजपा की विस्तार और विजय यात्रा ने इस धारणा को ध्वस्त किया है कि वह केवल व्यापारियों अथवा शहरी मध्य वर्ग की पार्टी है। 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सफलता हासिल करने के बाद से भाजपा ने जिस तरह दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर लगभग पूरे देश में उपस्थिति दर्ज कराई और एक के बाद एक राज्यों में सरकार बनाई, वह एक मिसाल है। भाजपा के विस्तार में जितना योगदान प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का है, उतना ही गृह मंत्री अमित शाह की कुशल रणनीति का भी। विरोधी दल भाजपा पर सांप्रदायिक होने का आरोप भले लगाते हों, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने यही साबित किया है कि भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति पूरी तरह समावेशी है और वह जाति-मजहब देखे बिना सभी को अपने में समाहित करती है एवं सबके उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है।
विडंबना यह है कि तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दल यह देखने को तैयार नहीं कि मोदी सरकार की कोई नीति ऐसी नहीं, जिसमें किसी से भेद किया गया हो। इसके विपरीत यह किसी से छिपा नहीं कि गैर भाजपा सरकारों ने किस तरह तुष्टीकरण की राजनीति के तहत भेदभाव वाली नीतियां बनाईं। विरोधी दल यह भी देखने को तैयार नहीं कि भाजपा की राजनीतिक सफलता में उसके राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के साथ उन जनकल्याणकारी एवं विकास योजनाओं का भी बड़ा हाथ है, जिन्होंने समाज के अंतिम व्यक्ति को लाभान्वित किया। भाजपा के विस्तार का एक अन्य कारण समाज के विभिन्न वर्गों से नई पीढ़ी के नेताओं को आगे लाना भी है। इसी कारण भाजपा का जनाधार तेजी से बढ़ा। अब तो उसने अनुसूचित जाति-जनजाति समाज के साथ अन्य पिछड़े वर्गों के बीच भी गहरी पैठ बना ली है। यह पैठ राहुल गांधी के उस थोथे दावे की पोल ही खोलती है, जिसके तहत वह यह दोहराते रहते हैं कि भाजपा चंद उद्यमियों के लिए काम कर रही है।
भाजपा के समक्ष कुछ चुनौतियां भी हैं। दक्षिण भारत में उसने कर्नाटक में तो अपनी पैठ बनाई और केंद्र शासित प्रदेश पुद्दुचेरी में भी सत्ता प्राप्त कर ली, लेकिन अन्य राज्यों, विशेष रूप से केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में उसे अब तक वांछित सफलता नहीं मिल सकी है। इन राज्यों में कर्नाटक जैसी वांछित सफलता क्यों नहीं हासिल हो सकी, इस पर भाजपा नेतृत्व को गंभीरता से विचार करना होगा। ऐसा करते समय उसे अपनी विचारधारा से समझौता किए बिना इन राज्यों में जनाधार बढ़ाने की कोशिश करनी होगी।