बीते दिनों वसीम रिजवी ने सनातन धर्म ग्रहण कर लिया। इसके पहले इंडोनेशिया के संस्थापक और प्रथम राष्ट्रपति की पुत्री सुकमावती सुकर्णोपुत्री ने इस्लाम छोड़ विधिवत हिंदू धर्म स्वीकार किया था। मुस्लिम देशों में इस्लाम छोड़ने, उस पर विश्वास न रखने और इस्लामी मान्यताएं ठुकराने वाले मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। सुकर्णोपुत्री जैसी बड़ी हस्ती द्वारा इस्लाम छोड़ने पर दुनिया के इस्लामी नेताओं से कोई धमकी न आना भी एक संकेत है।
कुछ समय पहले कनाडियन-अफ्रीकी मौलवी बिलाल फिलिप्स ने ‘इस्लाम छोड़ने की सुनामी’ आने की आशंका जताई थी। प्रसिद्ध अरब विशेषज्ञ डा. डैनियल पाइप्स का अवलोकन भी ध्यातव्य है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़े पाइप्स कई दशकों से अरब मामलों के अध्ययनकर्ता हैं। उनका भी मानना है कि मुस्लिम जगत में अपने मजहब से दूर होना ‘जंगल की आग’ सरीखा फैल रहा है। इस्लाम छोड़ने वाले ठसक से यह बता भी रहे हैं, जो पहले कभी नहीं हुआ था। अभी तुर्की मूल की लाले गुल ने एक संस्मरण पुस्तक, ‘मैं जीना चाहती हूं’ लिख कर अपनी घोषणा की। वह पुस्तक तुर्की में सर्वाधिक बिक रही है। यह अब अनेक मुस्लिम देशों में हो रहा है।
दुनिया में इस्लामी संगठनों, सत्ताओं के काम, बयान ही सुर्खियों में रहते हैं। उसके विपरीत प्रक्रिया अपेक्षाकृत चर्चाहीन रहती है, पर अब यह बदल रहा है। इस्लामिक स्टेट, तालिबान आदि के कारनामों ने मुसलमानों के एक वर्ग में राजनीतिक इस्लाम पर बुनियादी संदेह भी पैदा किया है। यह मुख्यत: चार रूपों में व्यक्त हो रहा है। कठोर इस्लामी कायदे छोड़ना, सभी मजहबी कायदों से छुट्टी करना, नास्तिक हो जाना और दूसरे धर्म अपना लेना। चारों रूप कई मुस्लिम देशों में बढ़ रहे हैं, किंतु अलग-अलग मुस्लिम देश में किसी खास चीज की प्रमुखता भी दिख रही है। जैसे तुर्की में नास्तिकता बढ़ रही है।
सऊदी अरब में इस्लाम छोड़ने वाले बढ़ रहे हैं। ईरान में मतांतरण हो रहा है। मिस्र में कठोर इस्लामी कायदे छोड़े जा रहे हैं। यह सब स्वत: हो रहा है। इसमें किसी बाहरी कारक का जिक्र नहीं आया। यानी मुसलमान स्वयं अपनी नियति तय करने की ओर बढ़ रहे हैं। मुल्ला-मौलवियों को सब कुछ तय करने देने की परंपरा तोड़ रहे हैं। मिस्र में उग्रवादी इस्लामी संगठनों के लोगों को नीची नजरों से देखा जाने लगा है। कभी-कभार सड़कों पर उनकी पिटाई भी हो जाती है। स्त्रियां अपने हिजाब फेंक कर विरोध दर्शाती हैं। इस्लाम के आलोचक लेखकों, पत्रकारों की संख्या और लोकप्रियता बढ़ी है। तुर्की युवाओं में गैर-इस्लामी तौर-तरीके लोकप्रिय हो रहे हैं। वे इस्लामी विश्वासों के विपरीत विचार अपना रहे हैं। धर्म-विश्वास ही नहीं, संस्कृति, आपसी संबंध, पोशाक, खान-पान आदि में भी गैर-इस्लामी व्यवहार अधिक प्रचलित हो रहे हैं
एक रिपोर्ट ने भी नोट किया कि मदरसों के छात्र ज्ञान, स्वानुभूति और आध्यात्मिक भाव-चितंन के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। अर्थात मुल्ला-मौलवियों के मूल दावों को ही खारिज कर रहे हैं। विन-गैलप संस्था द्वारा किए सर्वेक्षण में 73 प्रतिशत तुर्क लोगों ने अपने को ‘गैर-मजहबी’ बताया। किसी मुस्लिम देश में अपने मजहब से उदासीन लोगों की यह सबसे बड़ी संख्या है। विन-गैलप के सर्वेक्षण में पांच प्रतिशत सऊदी नागरिकों ने अपने को ‘पक्का नास्तिक’ कहा। अमेरिका में भी इतने ही लोग अपने को पक्का नास्तिक कहते हैं। यह भी नोट करें कि सऊदी सरकार नास्तिकता रोकने के लिए आतंकवाद-विरोधी कानून का प्रयोग कर रही है। इसी से पूरी स्थिति का अनुमान हो जाता है। दूसरी ओर वही सरकार शिक्षा, संस्कृति, अर्थव्यवस्था में गैर-इस्लामी चीजें मंजूर कर रही है।
गैर-मुसलमानों के लिए निषिद्ध कुछ क्षेत्र अब सबके लिए खोले जा रहे हैं। साफ है वहां इस्लामी मत का निर्विवाद एकाधिकार अब पहले जैसा नहीं रह गया। यदि नागरिकों को स्वतंत्रता मिले तो स्थिति कुछ भी हो सकती है।
ईरान में क्रिश्चियनिटी का प्रभाव बढ़ रहा है। ईरानी सरकार में मंत्री महमूद अलावी ने सार्वजनिक रूप से माना कि कई मुस्लिम क्रिश्चियन बने हैं। मंत्रियों की टिप्पणियां इक्की-दुक्की घटनाओं पर शायद ही होती हों।
इस्लाम से दूरी बना रहे मुसलमान केवल मजहब ही नहीं, बल्कि परिवार, सामाजिक संबंध, राजनीति आदि में भी इस्लामवादियों के विपरीत रुख ले रहे हैं। वे स्वतंत्रतापूर्वक सोच-विचार कर रहे हैं और मजहबी निर्देशों के अनुसार चलने से इन्कार कर रहे हैं। इजरायल से अनेक मुस्लिम देशों के संबंध बढ़ना भी एक तथ्य है। इस्लाम छोड़ने वाले मुसलमान यूरोप, अमेरिका में भी हैं। प्यू रिसर्च के एक आकलन के अनुसार अमेरिका में सालाना एक लाख मुसलमान इस्लाम छोड़ते हैं। फ्रांस में सालाना 15 हजार मुसलमान दूसरे धर्म अपनाते हैं। यह उन देशों में कुल मुस्लिम जनसंख्या के हिसाब से मामूली है, किंतु रुझान के रूप में वहां भी मौजूद है।
एक बिल्कुल नई बात यह कि अब इस्लाम छोड़ने वाले संगठित होकर या अकेले अपनी बातों का प्रचार भी कर रहे हैं। इस्लामी मतवाद के तत्वों का खंडन, विश्लेषण आदि करके मुस्लिम जगत में फैला रहे हैं। इस्लाम छोड़ने वाले नए लोगों को सहयोग, सहायता, बल पहुंचा रहे हैं। कई पूर्व-मुस्लिम यू-ट्यूब, वेबसाइट, पुस्तकों आदि द्वारा यह कर रहे हैं। उन्हें सुनने, पढ़ने वालों की संख्या काफी है। ऐसे लिखने-बोलने वाले पूर्व-मुस्लिमों के विरुद्ध धमकियों, हिंसा आदि का दबाव और भय, दोनों कम हो रहा है। यह स्वाभाविक है। जब निर्भीक लोगों की संख्या बढ़ती है, तब धमकी देने वालों का मनोबल कमजोर होता ही है। फिर बड़े-बड़े मौलवी-मौलाना पूर्व-मुसलमानों के सवालों, दलीलों पर निरुत्तर रहते हैं। धमकियों और फटकार के सिवाय उनके पास कोई उत्तर नहीं
डा. डैनियल पाइप्स ध्यान दिलाते हैं कि अरब से ही नई-नई प्रवृत्तियां, मान्यताएं, व्यवहार आदि पूरे विश्व के मुस्लिमों के बीच फैलते रहे हैं। जैसे खास वेश-भूषा, वहाबीवाद, अलकायदा, इस्लामिक स्टेट आदि सभी प्रमुख आंदोलन या तरीके वहीं से दुनिया के मुसलमानों में फैले। संभव है कि कुछ समय बाद इस्लाम से उदासीनता और इस्लाम छोड़ने की हवा नाइजीरिया, बांग्लादेश, मलेशिया आदि देशों में भी दिखने लगे। भारतीय मुसलमानों में भी सकारात्मक बदलाव संभव है, क्योंकि पूरे विश्व में सबसे अधिक और अग्रणी बौद्धिक मुसलमान भारत से ही हुए हैं।