बुलडोजर जस्टिस पर रोक लगा कर हमने सरकार को जज, जूरी और जल्लाद बनने से रोका: CJI

बुलडोजर जस्टिस पर रोक लगा कर हमने सरकार को जज, जूरी और जल्लाद बनने से रोका: CJI

प्रधान न्यायाधीश ने ‘बुलडोजर जस्टिस’ पर एक बार फिर सवाल उठाते हुए बताया है कि किस तरह हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ‘बुलडोज़र न्याय’ पर प्रतिबंध लगाया और कार्यपालिका को न्यायाधीश, जूरी और जल्लाद बनने से रोका। हम आपको बता दें कि भारत के प्रधान न्यायाधीश (CJI) बीआर गवई ने इटली के शीर्ष न्यायाधीशों की सभा को संबोधित करते हुए पिछले 75 वर्षों में ग़रीबों और हाशिये पर पड़े लोगों को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय दिलाने में सुप्रीम कोर्ट के योगदान को रेखांकित करते हुए यह बात कही।

CJI गवई ने कहा कि अपराध के आरोपी व्यक्तियों के घरों को मनमाने तरीके से गिराना, कानूनी प्रक्रिया को दरकिनार करना और नागरिकों के आवास के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन करना, असंवैधानिक है। CJI ने कहा, “कार्यपालिका (सरकार) एक साथ न्यायाधीश, जूरी और जल्लाद नहीं बन सकती। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का उल्लेख किया जिसमें कहा गया था, “घर का निर्माण सामाजिक-आर्थिक अधिकारों का एक पहलू है।” उन्होंने कहा, “एक आम नागरिक के लिए, घर का निर्माण वर्षों की मेहनत, सपनों और आकांक्षाओं की परिणति होता है। एक घर केवल संपत्ति नहीं होता, बल्कि यह एक परिवार या व्यक्ति की स्थिरता, सुरक्षा और भविष्य की सामूहिक आशाओं का प्रतीक होता है।”

CJI गवई ने कहा, “पिछले 75 वर्षों को देखते हुए यह निर्विवाद है कि भारतीय संविधान ने आम लोगों के जीवन में बदलाव लाने की दिशा में निरंतर प्रयास किए हैं।” उन्होंने कहा कि, “निदेशक सिद्धांतों के कई पहलुओं को मौलिक अधिकारों के रूप में पढ़कर या कानून बनाकर लागू किया गया है।” हम आपको बता दें कि CJI बीआर गवई भारतीय संविधान के 75 वर्षों के सफर से संबंधित विषय पर इटली की मिलान कोर्ट ऑफ अपील में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि “जहां संसद ने विधायी और संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से पहल की, वहीं सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा से लेकर आजीविका तक के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को लागू करने योग्य मौलिक अधिकारों में बदलने का कार्य लगातार किया, जिन्हें बाद में संसद द्वारा प्रभावी बनाया गया।”

CJI ने कहा कि, “संविधान की 75 वर्षों की यात्रा सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान करने में महान महत्वाकांक्षा और महत्वपूर्ण सफलताओं की कहानी है।” उन्होंने कहा कि संविधान को अपनाने के तुरंत बाद भारतीय संसद द्वारा की गई प्रारंभिक पहलों में भूमि और कृषि सुधार कानून तथा पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की नीतियां शामिल थीं। उन्होंने कहा कि इन पहलों का प्रभाव आज स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। भारत की न्यायपालिका के प्रमुख बनने वाले दूसरे दलित CJI गवई ने कहा, “शिक्षा में सकारात्मक कार्रवाई की नीतियां, जिन्होंने ऐतिहासिक अन्यायों को सुधारने और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का प्रयास किया, वे संविधान की वास्तविक समानता और सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्रतिबद्धता का ठोस प्रमाण हैं।” प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि न्याय एक अमूर्त आदर्श नहीं है और इसे सामाजिक संरचनाओं, अवसरों के वितरण और लोगों के रहने की स्थितियों में जड़ें जमानी चाहिए। उन्होंने कहा, ”किसी भी देश के लिए, सामाजिक-आर्थिक न्याय राष्ट्रीय प्रगति का एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह सुनिश्चित करता है कि विकास समावेशी हो, अवसरों का समान वितरण हो और सभी व्यक्ति, चाहे उनकी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, सम्मान और स्वतंत्रता के साथ रह सकें।’’ भाषण देने के लिए आमंत्रित करने पर चैंबर ऑफ इंटरनेशनल लॉयर्स को धन्यवाद देते हुए, न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान करने में पिछले 75 वर्षों में भारतीय संविधान की यात्रा महान महत्वाकांक्षा और महत्वपूर्ण सफलताओं की कहानी है।

उन्होंने कहा, ‘‘भारत के प्रधान न्यायाधीश के रूप में, मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि भारतीय संविधान के निर्माता इसके प्रावधानों का मसौदा तैयार करते समय सामाजिक-आर्थिक न्याय की अनिवार्यता के प्रति गहनता से सचेत थे। इसका मसौदा औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के लिए एक लंबे और कठिन संघर्ष के बाद तैयार किया गया था।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैंने अक्सर कहा है, और मैं आज यहां फिर दोहराता हूं, कि समावेश और परिवर्तन के इस संवैधानिक दृष्टिकोण के कारण ही मैं भारत के प्रधान न्यायाधीश के रूप में आपके सामने खड़ा हूं। ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाली पृष्ठभूमि से आने के कारण, मैं उन्हीं संवैधानिक आदर्शों का उत्पाद हूं, जो अवसरों को लोकतांत्रिक बनाने और जाति तथा बहिष्कार की बेड़ियों को तोड़ने की मांग करते हैं।’’


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