अमेरिका-तालिबान डील के बाद भी अफगानिस्तान में शांति मुश्किल, जानिए क्यों
काबुल
अफगानिस्तान में तालिबान के राज को अमेरिका द्वारा उखाड़ फेंकने के 18 साल बाद शनिवार को वॉशिंगटन ने उसी तालिबान के साथ शांति समझौता किया। इस डील से अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार की मुश्किलें बढ़ने वाली है जो अब तक बहुत हद तक अमेरिका पर निर्भर रही है। अमेरिका-तालिबान समझौते के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इससे वाकई अफगानिस्तान में शांति सुनिश्चित होगी। भारत के लिए भी यह काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि अफगानिस्तान में तमाम हित दांव पर लगे हैं। भारत ने वहां काफी निवेश किया है और युद्ध से बर्बाद इस देश के पुनर्निर्माण में बढ़-चढ़कर सहयोग किया है। अमेरिका-तालिबान डील अफगानिस्तान में शांति सुनिश्चित नहीं कर पाएगी। इसकी तमाम वजहे हैं।
आगे की राह नहीं आसान
दोहा में हुए ऐतिहासिक समझौते के बाद अब भारत समेत पूरी दुनिया की नजर इस पर रहेगी कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान किस दिशा में बढ़ेगा। तालिबान की अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार से चिढ़ जगजाहिर है। वह उसे अमेरिका की कठपुतली कहता आया है। समझौते की पूरी प्रक्रिया के दौरान तालिबान ने कभी भी सीधे अफगानिस्तान सरकार से बातचीत नहीं की। हालांकि, उसने पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और दूसरी अफगान हस्तियों से जरूर कई राउंड की बातचीत की। तालिबान के पूर्व लड़ाके अब अफगानिस्तान की सत्ता पर फिर से काबिज हो सकते हैं। इससे अफगानिस्तानियों खासकर महिला अधिकारों के लिए लड़ने वालों की चिंता बढ़ गई है क्योंकि उन्हें डर है कि तालिबान राज को उखाड़ फेंके जाने के बाद उन्हें जो अधिकार मिले थे, वे फिर छिन जाएंगे।
…तो बहुत पहले हो सकता था समझौता
अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई का मानना है कि संघर्ष का खात्मा सालों पहले हो सकता था। 2010 में तालिबान के शीर्ष नेताओं में से एक मुल्ला अब्दुल गनी बरदार शांति और सुलह के खातिर बातचीत के लिए राजी था। उसने तत्कालीन राष्ट्रपति करजई तक अपना संदेश पहुंचाया था। लेकिन उस वक्त अमेरिका ने आतंकियों के साथ बातचीत से इनकार कर दिया था। इतना ही नहीं, अमेरिकी एजेंसी सीआईए और पाकिस्तान ने संयुक्त अभियान चलाकर बरदार को गिरफ्तार कर लिया। बरदार को 2018 में पाकिस्तानी जेल से रिहा किया गया और उसने दोहा समझौते में तालिबान का मुख्य वार्ताकार था। उसी ने अमेरिकी दूत जलमे खलीलजाद के साथ मौजूदा समझौता किया।
अमेरिका ने 2013 से ही तालिबान से बातचीत की कोशिश शुरू कर दी थी लेकिन मध्यस्थों के जरिए। सितंबर 2018 में अमेरिका राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खलीलजाद को दूत नियुक्त किया और उन्हें सीधे तालिबान से बातचीत की जिम्मेदारी दी, जिसने कतर में अपना राजनीतिक कार्यालय खोल रखा था। आखिरकार लंबी कवायद के बाद शनिवार को यह डील मूर्त रूप ले सकी।
अमेरिका और तालिबान फिर से होंगे दोस्त?
समझौते के मुताबिक अमेरिका और अन्य नाटो देशों को अफगानिस्तान से अपने सैनिक वापस बुलाने हैं। हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि क्या अमेरिका के कुछ सैनिक आईएस से जुड़े स्थानीय आतंकियों से निपटने के लिए अफगानिस्तान में ही बने रहेंगे।
आईएसआईएस अमेरिका और तालिबान दोनों का दुश्मन है और वॉशिंगटन चाहता है कि आईएस के खिलाफ लड़ाई में तालिबान उसका साथ दे। 1980 के दशक में सीआईए ने अफगान मुजाहिदीनों को फंड दिया, उन्हें तत्कालीन सोवियत संघ के लड़ाई के लिए खड़ा करने में हर मुमकिन सहयोग दिया। उन्हीं में से कुछ मुजाहिदीनों ने तालिबान की स्थापना की। अभी करीब आधे अफगानिस्तान पर तालिबान का ही नियंत्रण है।
अमेरिका-तालिबान डील से कहीं ज्यादा जटिल होगी काबुल की बातचीत
अमेरिका-तालिबान की बातचीत से कहीं ज्यादा जटिल अब अफगानिस्तान में संबंधित पक्षों की बातचीत रहने वाली है। सभी पक्ष इस पर तो सहमत हैं कि अफगानिस्तान इस्लामिक सिद्धांतों के मुताबिक ही चलना चाहिए। लेकिन बड़ा सवाल महिलाओं की स्थिति को लेकर है। आतंकियों के राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल होने के बाद महिलाओं के उन अधिकारों पर ग्रहण लग सकता है जो तालिबान शासन के अंत के बाद उन्हें मिल पाए थे। तालिबान स्पष्ट कर चुका है कि वह महिलाओं के घरों से बाहर काम करने और उनके शैक्षिक अधिकारों के खिलाफ है। इसके अलावा भी कई मसले हैं। संविधान में बदलाव या नए सिरे से संविधान लिखे जाने की गुंजाइश भी बरकरार है। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो यह अभिव्यक्ति की आजादी समेत यह कई अन्य मुद्दों और बहस को जन्म देगी। अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक शिया भी चाहेंगे कि उन्हें संवैधानिक संरक्षण का भरोसा मिले।
1990 वाले अराजकता के दौर की हो सकती है वापसी
अगर दोनों पक्ष इन सभी मुद्दों पर सहमत भी हो जाएं तब भी अफगानिस्तान में शांति आएगी, यह कहना मुश्किल है। हजारों तालिबान लड़ाके और पिछले 18 सालों में पश्चिम की सहायता से ताकतवर हुए दूसरे हथियारबंद समूह वाकई हथियार छोड़ेंगे, इस पर संदेह है। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान में एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हथियारबंद समूहों में आपसी संघर्ष की आशंका भी निराधार नहीं है। इससे देश एक बार फिर से 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों जैसी अव्यवस्था और अनिश्चितता के भंवर में जा सकता है। तब ऐसे ही समूहों के संघर्ष में 10,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी जिनमें ज्यादातर आम नागरिक थे। उन्हीं संघर्षों ने ही तालिबान के सत्ता में आने का भी रास्ता साफ किया था।