सजा दिलाना ही था जीवन का मकसद, इकलौते बेटे की हत्या में तीन डॉक्टरों को उम्रकैद

सजा दिलाना ही था जीवन का मकसद, इकलौते बेटे की हत्या में तीन डॉक्टरों को उम्रकैद

मेरठ मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस कर रहे इकलौते बेटे की मौत के बाद बुजुर्ग डॉक्टर दंपती ने आरोपियों को सजा दिलाना ही अपने जीवन का मकसद बना लिया। मजबूत इरादे के साथ आरोपियों के खिलाफ पैरवी की और आखिरकार तीनों हत्यारे डॉक्टरों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचवा दिया। अदालत से तीनों हत्यारों को उम्रकैद की सजा मिलने पर डॉक्टर दंपती ने संतोष जताया, लेकिन तत्कालीन मेडिकल कॉलेज प्राचार्या ऊषा शर्मा को सजा दिलाने के लिए संघर्ष जारी रखने का भी संकल्प लिया।

यह था मामला
मूल रूप से भोपा क्षेत्र के गांव अथाई निवासी डॉ सुरेंद्र ग्रेवाल और उनकी पत्नी गायनोलॉजिस्ट डॉक्टर सुरेंद्र कौर शहर के भोपा रोड पर किसान हॉस्पिटल चलाते हैं। डॉक्टर दंपती ने इकलौते बेटे सिद्धार्थ चौधरी (22) को वर्ष 2002 में मेरठ मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस में एडमिशन दिलाया था। छह जुलाई 2004 को एमबीबीएस तृतीय वर्ष के छात्र सिद्धार्थ चौधरी की लाश हॉस्टल के कमरा नंबर 38 में मिली थी। सात जुलाई 2004 की सुबह 11 बजे डॉ. दंपती को बेटे की मौत की सूचना मिली। डॉ. सुरेंद्र ग्रेवाल ने बताया कि जब वे मेडिकल कॉलेज पहुंचे तो सिद्धार्थ के कमरे को धोकर साफ कर दिया गया था। शक होने पर डॉ. दंपती ने अपनी मौजूदगी में शव का पोस्टमार्टम कराया, जिसमें शरीर पर चोटों के निशान आए। शव का अंतिम संस्कार कर डॉ. दंपती ने उसके सीनियर डॉ. सचिन मलिक, डॉ. अमनदीप सिंह, डॉ. यशपाल राणा व तत्कालीन कॉलेज प्राचार्या ऊषा शर्मा पर हत्या का आरोप लगाते हुए कार्रवाई की मांग की।

यूं चला संघर्ष

डॉक्टर दंपती ने बताया कि तत्कालीन मेरठ एसएसपी के आदेश पर हत्या के आरोप में अगस्त 2004 को रिपोर्ट दर्ज की गई, लेकिन पुलिस ने दस दिन बाद ही सिद्धार्थ को ड्रग एडिक्ट बताकर अंतिम रिपोर्ट लगा दी। इस पर पोस्टमार्टम रिपोर्ट और अन्य कागजात मेडिको लीगल एक्सपर्ट को भेजे गए, जहां से सितंबर 2004 को आई जांच रिपोर्ट में सिद्धार्थ की मौत प्राकृतिक रूप से होने से इंकार कर दिया गया। इसी आधार पर मानवाधिकार आयोग ने सीबीसीआईडी जांच की संस्तुति की। नवंबर 2004 से सीबीसीआईडी ने जांच शुरू की, लेकिन कुछ समय बाद ही अंतिम रिपोर्ट लगाकर केस बंद कर दिया। विरोध में डॉ. दंपती फिर मानवाधिकार आयोग गए।

इसके बाद आयोग ने शासन को न्यायिक जांच के निर्देश दिए, जिसके बाद मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट राकेश कुमार ने मामले की जांच की। मार्च 2005 में डॉ. सचिन मलिक, डॉ. यशपाल राणा और डॉ. अमनदीप सिंह को हत्यारोपी मानकर जेल भेजा गया और प्राचार्या ऊषा शर्मा का नाम निकाल दिया। इसके खिलाफ डॉ. दंपती जून 2005 में हाईकोर्ट चले गए, जहां से केस को मेरठ से मुजफ्फरनगर ट्रांसफर कर दिया गया। करीब तीन साल तक केस तारीखों में चलता रहा, फिर 2008 में इसकी सुनवाई मेरठ एडीजे कोर्ट भेज दी गई। इसके बाद 11 साल तक चली सुनवाई के बाद आखिरकार 12 दिसंबर 2019 को एडीजे (प्रथम) कोर्ट ने तीनों आरोपी डॉक्टरों को दोषी करार देते हुए उम्रकैद व एक-एक लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई।

पूर्व प्राचार्या को सजा दिलाने के लिए करेंगे संघर्ष

15 साल लंबी लड़ाई के बाद बेटे के हत्यारों को उम्रकैद होने पर बुजुर्ग डॉक्टर दंपती ने संतोष जताया। सिद्धार्थ की मां डॉ. सुरेंद्र कौर का कहना है कि जून 2004 में सिद्धार्थ ने प्राचार्या ऊषा शर्मा के खिलाफ मानव संसाधन मंत्रालय को भ्रष्टाचार संबंधित लिखित शिकायत भेजी थी, जिसकी जानकारी ऊषा शर्मा को मिल गई थी। इसके चलते हत्या की साजिश में ऊषा शर्मा भी शामिल रहीं। अदालत ने उसके खिलाफ भी हत्या के मामले में अलग से मुकदमा चलाने का निर्णय लिया है। डॉ. कौर का कहना है कि जब तक वे ऊषा शर्मा को भी सजा नहीं दिला देते, उनका संघर्ष जारी रहेगा।

दो हत्यारोपी सरकारी डॉक्टर, एक कर रहा प्रैक्टिस 
इकलौते बेटे सिद्धार्थ चौधरी को न्याय दिलाने के लिए 15 साल लंबी लड़ाई लड़ने वाले डॉ. सुरेंद्र ग्रेवाल ने बताया कि बेटे का हत्यारा डॉ. अमनदीप सिंह पंजाब प्रांत के जनपद गुरदासपुर में निजी प्रैक्टिस करता था। वहीं, बागपत के कस्बा छपरौली निवासी डॉ. सचिन मलिक और मुजफ्फरनगर के गांव शाहबुद्दीनपुर निवासी डॉ. यशपाल राणा जनपद बागपत में अलग-अलग पीएचसी में सीनियर मेडिकल ऑफिसर के रूप में कार्यरत थे।


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