आरक्षण सीमा पर पुनर्विचार की जरूरत पर सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ ने की सुनवाई
नई दिल्ली। आरक्षण की 50 फीसद की अधिकतम सीमा पर पुनर्विचार की जरूरत पर सुप्रीम कोर्ट में मंथन शुरू हो गया है। सोमवार को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में 28 साल पहले इंदिरा साहनी फैसले में तय की गई आरक्षण की अधिकतम 50 फीसद सीमा पर पुनर्विचार की जरूरत पर सुनवाई शुरू हुई। केरल की ओर से चुनाव की दुहाई देते हुए सुनवाई टालने का अनुरोध किया गया, लेकिन कोर्ट ने मांग ठुकरा दी और सुनवाई शुरू कर दी।
याचिकाकर्ताओं ने इंदिरा साहनी फैसले को पुनर्विचार के लिए पीठ को भेजने का किया विरोध
सबसे पहले महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का विरोध कर रहे याचिकाकर्ताओं की ओर से पक्ष रखा गया जिसमें इंदिरा साहनी के फैसले को पुनर्विचार के लिए 11 न्यायाधीशों की पीठ को भेजने का विरोध किया गया।
50 फीसद आरक्षण की लक्ष्मण रेखा को सभी राज्यों करें पालन, पुनर्विचार की जरूरत नहीं
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि आरक्षण की 50 फीसद सीमा लक्ष्मण रेखा है और सभी राज्यों को इसका पालन करना चाहिए। इस पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है क्योंकि इंदिरा साहनी फैसले के बाद पांच बार संविधान पीठ ने उस फैसले को अपनाया है और कभी भी आरक्षण की 50 फीसद सीमा पर सवाल नहीं उठाया। याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस मंगलवार को भी जारी रहेगी।
छह कानूनी सवाल जिस पर कोर्ट विचार करेगा
आठ मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने छह कानूनी सवाल तय किए थे जिनमें कोर्ट विचार करेगा कि क्या आरक्षण की तय अधिकतम 50 फीसद सीमा पर पुनर्विचार की जरूरत है। क्या 50 फीसद सीमा तय करने वाले इंदिरा साहनी फैसले को पुनर्विचार के लिए बड़ी पीठ को भेजा जाना चाहिए। इस पर भी विचार होना है कि क्या संविधान के 102वें संशोधन के बाद से राज्यों का पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का कानून बनाने का अधिकार बाधित हुआ है और क्या इससे संविधान में दी गई संघीय ढांचे की नीति प्रभावित हुई है। राज्यों के अधिकारों से जुड़े इन कानूनी सवालों पर कोर्ट ने सभी राज्यों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था और 15 मार्च से मामले पर नियमित सुनवाई तय करते हुए साफ कर दिया था कि उस दिन सुनवाई टालने का अनुरोध नहीं सुना जाएगा। कोर्ट ने ये कानूनी सवाल मराठा आरक्षण के मामले में तय किए थे। महाराष्ट्र सरकार ने कोर्ट से 50 फीसद की सीमा पर पुनर्विचार की मांग की है।
पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की अधिकतम 50 फीसद की सीमा तय की थी
सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी मामले जिसे मंडल जजमेंट भी कहते हैं, में आरक्षण की अधिकतम 50 फीसद की सीमा तय की थी। यह भी कहा था कि अपवाद में सीमा लांघी जा सकती है, लेकिन वो दूरदराज के मामलों में होना चाहिए। इस बीच बहुत से राज्यों ने आरक्षण की 50 फीसद सीमा का अतिक्रमण किया है।
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में शुरू हुई सुनवाई
सोमवार को मामला जस्टिस अशोक भूषण, एल. नागेश्वर राव, एस. अब्दुल नजीर, हेमंत गुप्ता और एस. रविंद्र भट की पांच सदस्यीय पीठ में लगा था। कई राज्यों की ओर से जवाब दाखिल करने के लिए कुछ और समय मांगा गया जिसे स्वीकार करते हुए कोर्ट ने एक सप्ताह का समय दे दिया। केरल की ओर से कहा गया कि राज्य में चुनाव हैं इसलिए फिलहाल सुनवाई टाल दी जाए। तमिलनाडु के वकील ने भी मांग का समर्थन किया, लेकिन कोर्ट ने अनुरोध ठुकरा दिया। मराठा आरक्षण को चुनौती देने वाले याचिककर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील अरविंद दत्तार ने कहा कि इंदिरा साहनी फैसले पर पहले कभी कोर्ट के किसी फैसले में सवाल नहीं उठाया गया। वह फैसला बहुत सोचविचार करने के बाद दिया गया था।
नौ जजों की पीठ में से आठ ने आरक्षण की अधिकतम 50 फीसद सीमा का समर्थन किया था
नौ न्यायाधीशों की पीठ में से आठ न्यायाधीशों ने आरक्षण की अधिकतम 50 फीसद सीमा का समर्थन किया था। दत्तार ने कहा कि आंबेडकर ने कहा था कि पहली चीज बराबरी का अधिकार है। आरक्षण भी नीचे के लोगों को बराबरी पर लाने की अवधारणा से दिया जाता है।
50 फीसद की सीमा पार नहीं होनी चाहिए
50 फीसद की सीमा पार नहीं होनी चाहिए। वरिष्ठ वकील श्याम दीवान ने मराठा आरक्षण का विरोध करते हुए कहा कि छह पिछड़ा आयोगों ने मराठों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने पर विचार किया इसमें से तीन केंद्र के आयोग थे और तीन राज्य के, सभी ने मराठों को पिछड़ा नहीं माना। दीवान ने महाराष्ट्र में मराठों के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से सक्षम होने के आंकड़े भी पेश किए। दीवान की बहस मंगलवार को भी जारी रहेगी।