ठाकरे भाइयों ने अपने ‘मिलन’ के लिए महाराष्ट्र में समाज को भाषा के नाम पर बाँट दिया

दोनों चचेरे भाइयों ने साथ आकर महाराष्ट्र की राजनीति में एक नई शुरुआत भी कर दी है। महाराष्ट्र में अब तक राजनीतिक परिवारों को बंटते देखा गया लेकिन ठाकरे बंधुओं ने एक साथ आकर जो पहल की है क्या उसका विस्तार पवार परिवार तक भी होता है, अब इस पर सबकी नजरें टिकी रहेंगी।
New Delhi : महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर भाषा की भावनाओं की लहरों में डोलती दिखाई दे रही है। मराठी अस्मिता के सवाल को फिर से केंद्र में लाते हुए शिवसेना (उद्धव गुट) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे ने हिंदी भाषा को कथित रूप से ‘थोपे जाने’ के विरोध में एक समान सुर अपनाया है। यह घटनाक्रम न केवल राज्य की भाषाई राजनीति को गर्मा गया है, बल्कि वर्षों से एक-दूसरे के विरोध में खड़े ठाकरे बंधुओं को साझा राजनीतिक उद्देश्य के तहत साथ भी ले आया है।
वैसे राज ठाकरे और उनकी पार्टी की ओर से हिंदी भाषा का विरोध पहले भी होता रहा है। खासकर मुंबई जैसे महानगर में जहाँ हिंदी भाषी आबादी बड़ी संख्या में है, वहां मराठी भाषी समाज के मन में यह भाव डाला जा रहा है कि उनकी सांस्कृतिक पहचान और भाषा को धीरे-धीरे हाशिये पर डाला जा रहा है। राज ठाकरे की मनसे ने पहले भी हिंदी भाषियों पर निशाना साधते हुए ऑटो रिक्शा चालकों और बहुभाषी दुकानों के खिलाफ अभियान चलाए हैं। वहीं शिवसेना की स्थापना ही ‘मराठी मानुष’ की राजनीति पर हुई थी, हालांकि बाद के वर्षों में वह राष्ट्रीय राजनीति और गठबंधनों में आगे बढ़ती चली गई। दोनों भाई दो दशक के बाद एक ही मंच से जिस तरह गरजे हैं उससे हिंदी भाषियों के मन में सुरक्षा को लेकर आशंकाएं उत्पन्न होना स्वाभाविक है इसलिए महाराष्ट्र सरकार को अब और ज्यादा सतर्कता बरतने की जरूरत है।
आज दोनों चचेरे भाइयों उद्धव और राज ने साथ आकर महाराष्ट्र की राजनीति में एक नई शुरुआत भी कर दी है। हम आपको बता दें कि महाराष्ट्र में अब तक राजनीतिक परिवारों को बंटते देखा गया लेकिन ठाकरे बंधुओं ने एक साथ आकर जो पहल की है क्या उसका विस्तार पवार परिवार तक भी होता है, अब इस पर सबकी नजरें टिकी रहेंगी। आज की रैली में उद्धव और राज ठाकरे ने अपने भाषण के जरिये वैसे तो कई बड़ी बातें कहीं लेकिन उन्हें हिम्मत करके कुछ जायज सवालों के जवाब भी देने चाहिए।
1. पहला सवाल यह है कि जिस हिंदी को संविधान में राजभाषा का दर्जा हासिल है उसके खिलाफ नफरत क्यों फैलाई जा रही है?
2. दूसरा सवाल यह है कि हिंदी सिनेमा उद्योग ने जिस मुम्बई को विशिष्ट पहचान दिलाई और जो हिंदी सिनेमा उद्योग महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की तरह है वहां हिंदी का विरोध करना क्या दोहरा रवैया नहीं है? फिल्मों को हिंदी बेल्ट से कमाई चाहिए लेकिन उसी हिंदी बेल्ट का व्यक्ति यदि महाराष्ट्र में हिंदी बोले तो क्या उसकी बेल्ट से पिटाई की जायेगी?
3. तीसरा सवाल यह है कि छत्रपति शिवाजी महाराज से लेकर तमाम अन्य मराठा वीरों ने तो अपने साम्राज्य का उत्तर और दक्षिण तक विस्तार किया था लेकिन उद्धव और राज मराठियों को संकुचित दायरे में ही क्यों रखना चाहते हैं?
हिंदी विरोध के बहाने साथ आये उद्धव और राज को समझना चाहिए कि हिंदी वैश्विक स्तर पर तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह भारत की सांस्कृतिक सॉफ्ट पावर का प्रतीक बन चुकी है। विदेशों में भी भारतीय, हिंदी को अपने मूल से जोड़ने वाली डोर मानते हैं। हिंदी पर मराठी भाषा की जीत का उत्सव मना रहे उद्धव और राज को समझना चाहिए कि हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान का अभिन्न अंग है।
जन समर्थन खो चुके उद्धव और राज ठाकरे जैसे हिंदी विरोधियों को अपने मन की वह भ्रांति दूर कर लेनी चाहिए कि हिंदी कोई विरोधी भाषा है, उन्हें समझना चाहिए कि हिंदी तो एक सहयोगी भाषा है। यह कभी किसी पर थोपी नहीं जाती बल्कि अपनी उपयोगिता, पहुँच और आत्मीयता के बल पर यह जनमानस में रची-बसी है। हिंदी तो वह भाषा है जो भारत की भाषायी विविधता को बनाए रखते हुए अन्य भाषाओं के साथ बड़ी आसानी से समन्वय कर लेती है। राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए साथ आये उद्धव और राज ठाकरे को समझना चाहिए कि हिंदी एक लचीली और समावेशी भाषा है जो अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करती है। इसमें संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी, बंगाली, क्षेत्रीय बोलियों और यहां तक कि अंग्रेजी के शब्दों को भी आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता है।
देश और समाज को जोड़ने वाले मुद्दों को उठा कर अपनी राजनीति आगे बढ़ाने की बजाय समाज को बांटने वाले मुद्दे उठा कर उद्धव और राज ठाकरे को समझना चाहिए कि हिंदी किसी को दबाने या हटाने की भाषा नहीं है, बल्कि यह जोड़ने की भाषा है। यह ‘विविधता में एकता’ के भारतीय दर्शन को व्यवहार में उतारती है। उद्धव और राज ठाकरे को समझना चाहिए कि हिंदी भारत की आत्मा की आवाज़ है, यह उस किसान की बोली है, उस सैनिक का आदेश है, उस कवि की कल्पना है और उस आम आदमी का माध्यम है जो पूरे देश से जुड़ना चाहता है। इसे समझना, अपनाना और सम्मान देना ही असली भारतीयता है। आज जो लोग उद्धव और राज ठाकरे के एक साथ आने पर नृत्य कर रहे हैं उन्हें भी यह बात समझनी चाहिए कि चचेरे भाई तो आपस में जुड़ गये मगर आपको भाषा के नाम पर भड़का कर अपने पड़ोसियों और अपने सहयोगियों से अलग कर दिया।
बहरहाल, जहां तक उद्धव और राज ठाकरे के साथ आने की बात है तो आपको बता दें कि दोनों नेताओं का एक साथ आना महज भाषाई चिंता नहीं है, बल्कि इसमें एक गहरी राजनीतिक रणनीति छिपी हुई है। उद्धव ठाकरे बीजेपी से अलग होने और एकनाथ शिंदे की ओर से शिवसेना को विभाजित कर देने के बाद नए सिरे से अपनी ‘असली शिवसेना’ की छवि को फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं राज ठाकरे को भी लंबे समय से राजनीतिक पुनर्जीवन की तलाश है और मराठी अस्मिता का मुद्दा उनके लिए सबसे सहज विकल्प है। देखा जाये तो दोनों के लिए “हिंदी विरोध” एक ऐसा मंच है, जहां वे एक बार फिर मराठी मतदाता के भावनात्मक जुड़ाव को सक्रिय करने का प्रयास कर रहे हैं, खासकर मुंबई महानगर पालिका (BMC) चुनावों को ध्यान में रखते हुए।