वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाने के लिए Shashi Tharoor ने पेश किया विधेयक, बोले- महिला की ना का मतलब ना होना चाहिए
- सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या यह विधेयक वास्तव में महिलाओं के हित में है? इसके समर्थक इसे महिलाओं के अधिकारों का विस्तार बताते हैं, लेकिन वास्तविकता कहीं अधिक कठोर और चिंताजनक है। भारत में पहले से ही घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना, क्रूरता और यौन उत्पीड़न के खिलाफ मजबूत कानून मौजूद हैं।
लोकसभा में कांग्रेस सांसद शशि थरूर द्वारा वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाने वाला निजी विधेयक पेश किया गया है और इसके साथ ही एक ऐसी बहस को हवा मिल गई है जो भारतीय समाज की मूल संरचना को चुनौती देती दिख रही है। थरूर का कहना है कि विवाह के भीतर भी ‘‘ना का मतलब ना’’ होना चाहिए और महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता को पूर्ण अधिकार के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। यह दावा, सुनने में प्रगतिशील अवश्य लगता है, लेकिन इसके भीतर छिपी संभावनाएँ और इसके सामाजिक प्रभाव कहीं अधिक जटिल और विस्फोटक हैं। जब मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हो, केंद्र सरकार बार-बार चेतावनी दे चुकी हो कि ऐसा कानून विवाह संस्था को गंभीर रूप से अस्थिर कर सकता है और अदालत ने खुद कहा हो कि यह मुद्दा न्यायालय से अधिक संसद और समाज के व्यापक विमर्श का विषय है, ऐसे समय पर इस तरह का विधेयक पेश करना किसी हड़बड़ी और कुछ हद तक राजनीतिक अवसरवाद जैसा प्रतीत होता है।
देखा जाये तो विवाह भारतीय समाज की सबसे स्थायी सामाजिक संस्था है। यह केवल कानूनी अनुबंध नहीं, यह भावनात्मक बंधन, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और सामाजिक संरचना का केंद्रीय आधार है। ऐसे संबंध में उत्पन्न समस्याओं को सीधे बलात्कार जैसे कठोर आपराधिक शब्द के हवाले कर देना न केवल संवेदनहीनता है, बल्कि यह हमारे समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने वाला कदम भी है। जिस संबंध का स्वभाव संवाद, समझ, समर्पण और आपसी विश्वास पर आधारित है, उसे अचानक थाने-कचहरी के ढांचे में धकेल देना दांपत्य जीवन को अपराध की भाषा में बदल देने जैसा है। पति-पत्नी के बीच असहमति या तनाव को एक झटके में धारा 63 जैसी धाराओं का विषय बना देना एक ऐसा माहौल पैदा करेगा जहां हर दांपत्य विवाद में पुलिस का दखल, गिरफ्तारी और अदालत की तारीखें सामान्य दृश्य बन जाएँगी। क्या यही वह भविष्य है जिसकी ओर हमारा समाज बढ़ना चाहता है?
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या यह विधेयक वास्तव में महिलाओं के हित में है? इसके समर्थक इसे महिलाओं के अधिकारों का विस्तार बताते हैं, लेकिन वास्तविकता कहीं अधिक कठोर और चिंताजनक है। भारत में पहले से ही घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना, क्रूरता और यौन उत्पीड़न के खिलाफ मजबूत कानून मौजूद हैं। ऐसे में वैवाहिक बलात्कार जैसे अपराध जोड़ देने से न्याय प्रक्रिया और अधिक उलझेगी ही। ‘‘सहमति’’ की परिभाषा को निजी दांपत्य जीवन में इस प्रकार लागू करना कि पुलिस और अदालत तय करें कि दांपत्य संबंध का कौन सा क्षण सहमति वाला था और कौन सा नहीं, यह न केवल हास्यास्पद है बल्कि खतरनाक भी है। इससे गृहस्थ जीवन का हर सामान्य उतार-चढ़ाव, हर गलतफहमी और हर भावनात्मक क्षण ‘‘अपराध’’ के दायरे में खड़ा नज़र आएगा।
जहां तक इस मामले में अदालत में दाखिल केंद्र सरकार के हलफनामें की बात है तो उसमें कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद 2 को उसकी संवैधानिक वैधता के आधार पर निरस्त करने से विवाह संस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, यदि किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य को ‘बलात्कार’ के रूप में दंडनीय बना दिया जाता है। इसमें कहा गया है, ‘‘इससे वैवाहिक संबंध पर जबरदस्त प्रभाव पड़ सकता है और विवाह संस्था में गंभीर गड़बड़ी पैदा हो सकती है।’’ केंद्र ने कहा है कि तेजी से बढ़ते और लगातार बदलते सामाजिक एवं पारिवारिक ढांचे में संशोधित प्रावधानों के दुरुपयोग की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि किसी व्यक्ति के लिए यह साबित करना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण होगा कि सहमति थी या नहीं। हलफनामे में कहा गया है कि पति के पास निश्चित रूप से पत्नी की सहमति का उल्लंघन करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है, हालांकि, भारत में ‘‘बलात्कार’’ की प्रकृति के अपराध को विवाह संस्था से जोड़ना अत्यधिक कठोर है और इसलिये यह असंगत है।
यह तो हुई सरकारी हलफनामे की बात। अब बात करते हैं उन याचिकाकर्ताओं की मानसिकता की जो दंपतियों के बीच विवाद खड़ा करना चाहते हैं। यहां पहला सवाल यह है कि यह वैवाहिक बलात्कार है क्या? दरअसल विवाह जैसे पवित्र रिश्ते के साथ बलात्कार जैसे घिनौने शब्द को जोड़ कर भारतीय पारिवारिक व्यवस्था को नष्ट करने की कुचेष्टा की जा रही है। इस अभियान को चलाने वाले लोगों के नाम देखेंगे तो आपको सारे वामपंथी मिलेंगे जिनका पहले से ही भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विश्वास नहीं है या फिर ऐसे लोग मिलेंगे जिनका खुद का विवाह संबंध असफल रहा है। या फिर ऐसे लोग यह मांग कर रहे हैं जो विवाह में ही विश्वास नहीं करते या यह मांग करने वालों में ऐसे लोग हैं जो अपने परिवार को एक नहीं रख सके। ऐसे लोग ही हमेशा समाज में अशांति और असंतोष बनाये रखना चाहते हैं इसलिए वह इस तरह की मांग कर रहे हैं। यह वही लोग हैं जो महिलाओं को भरमा कर कभी-कभी उनका घर भी तुड़वा देते हैं और फिर बाहर से तमाशा देखते हुए ट्वीट ट्वीट खेलते हैं। अब जो शशि थरूर यह विधेयक लेकर आये हैं जरा उन पर भी गौर कर लीजिये। वह कितने विवाह कर चुके हैं उनकी पिछली पत्नी सुनंदा पुष्कर का क्या हुआ यह सब जानते हैं।
जरा सोचिये यदि यह कानून बन जाये कि पत्नी की असहमति से शारीरिक संबंध बनाना अपराध की श्रेणी में आता है तो कितने परिवार बिखरने की कगार पर आ सकते हैं। यदि उक्त कानून के तहत किसी की पत्नी ने अपने पति पर जबरन शारीरिक संबंध बनाने का केस दर्ज करा दिया तब सोचिये क्या होगा? पुलिस जब घर पर आयेगी तो मोहल्ले वाले या परिजन पूछेंगे कि क्या हुआ? क्या मामला है? पुलिस जब महिला का बयान लिख रही होगी तो वह क्या-क्या सवाल पूछेगी? देखा जाये तो पति अपनी पत्नी के साथ किसी प्रकार की जबरदस्ती नहीं करे इसके लिए उनके बेडरूम में पुलिस बिठाने की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि उन्हें शिक्षित किया जाये और इस संबंध में जागरूकता अभियान चलाया जाये। पति-पत्नी के बीच प्यार और आपसी सम्मान स्वतः आता है उसे जबरन या कानून के डर से नहीं लाया जा सकता। और बात यदि बेडरूम में पुलिस बैठाने की है तो क्या इतने पुलिसकर्मी हैं आपके पास? बात यदि पतियों पर जबरन केस करने की है तो क्या अदालतें ऐसे केसों का बोझ झेलने के लिए तैयार हैं? सोचिये जरा क्या ऐसे केसों के बाद परिवार एकजुट रह सकेंगे? क्या जोड़ियां टूटने से अवसाद, अकेलेपन और आत्महत्या करने जैसी स्थितियां नहीं पैदा होंगी?
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे यहां महिलाओं को घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है जोकि बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। यह भी सही है कि विवाह हो जाने का मतलब यह नहीं है कि महिला ने अपनी हर इच्छा भी अपने पति के नाम पर कर दी है। लेकिन यह भी सही है कि आज भी महिलाएं अपने पति की किसी भी गलत हरकत या जबरन यौनाचार किये जाने के खिलाफ पुलिस थाने जा सकती हैं, अदालत जा सकती हैं और न्याय पा सकती हैं। आज केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा स्थानीय थाना स्तर पर भी हेल्पलाइन्स बनाई गयी हैं जहां पर अपने साथ दुर्व्यवहार या किसी भी प्रकार का अपराध होने पर महिलाएं तत्काल शिकायत कर सकती हैं। ऐसे में क्या जरूरत है वैवाहिक बलात्कार की परिभाषा गढ़ने की और उसे अपराध की श्रेणी में लाने की? यह तो सिर्फ भारत की विवाह संस्था को बदनाम करने और उसे तोड़ने की एक साजिश ही लगती है। यहां यह भी याद रखिये कि आज जो लोग इस तरह की मांग कर रहे हैं वही लोग यह भी प्रश्न उठाते हैं कि क्यों महिलाएं ही करवा चौथ का व्रत रखती हैं? क्यों महिलाएं ही अपनी संतान की लंबी आयु या उसकी समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं? यह वामपंथी हमेशा से भारतीय समाज और परिवार की संस्कृति और परम्पराओं को ढकोसला बताते रहे हैं इसलिए इनसे और क्या उम्मीद रखी जा सकती है?
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय समाज को यदि तेजी से और स्थायी रूप से तरक्की करनी है तो हमें महिलाओं का सशक्तिकरण करना होगा, उनके अधिकारों की रक्षा करनी होगी, उनके मान-स्वाभिमान, आत्मसम्मान की रक्षा करनी होगी। हमारे यहां तो कहा भी जाता है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।
