इंस्पेक्टर रोजंत त्यागी ने उतारा ‘वीआईपी पत्रकार’ का नशा, रामकथा में श्रद्धा से ज़्यादा दिखा वीआईपी कल्चर का जलवा
Saharanpur [24CN] : धार्मिक आयोजनों में इन दिनों भक्ति से ज़्यादा “वीआईपी कल्चर” का रंग चढ़ा नज़र आता है। ऐसा ही एक वाकया हाल ही में उस समय देखने को मिला जब हरियाणा से आए एक तथाकथित पत्रकार ने रामकथा कार्यक्रम में ऐसा हंगामा खड़ा कर दिया कि आयोजक भी परेशान हो उठे।
बताया गया कि संबंधित व्यक्ति, जो खुद को “स्पेशल कवरेज रिपोर्टर” बताता है, श्रद्धा भरे माहौल में पहुंचते ही “रिपोर्टिंग मोड” में आ गया — मंच के पास बैठी महिलाओं की गिनती करने लगा और तंज कसा, “यहां महिला कांस्टेबल तो कोई है ही नहीं!”
बात यहीं खत्म नहीं हुई। जनाब आयोजक गुप्ता परिवार की आरक्षित वीआईपी सीट पर जा बैठे और जब सुरक्षा कर्मियों ने निवेदन किया तो तत्काल जवाब मिला — “मैं प्रेस से हूं!”
मौके पर ड्यूटी पर मौजूद इंस्पेक्टर रोजंत त्यागी ने स्थिति संभाली। उन्होंने पहले समझाने का प्रयास किया, फिर संयम बनाए रखा, और जब “वीआईपी नशा” उतरना ज़रूरी हो गया, तो पुलिस की मर्यादा में रहकर सलीके से मामला निपटा दिया।
धरमू नामक उस पत्रकार का कहना है कि वह मासूम शर्मा के कार्यक्रम में आए थे और बाद में मीका सिंह से भी मिलने पहुंचे थे। अब वे खुद को “सफाई अभियान” पर बताते हैं, मगर लोगों का कहना है कि “अब सफाई सुनने वाला कोई नहीं बचा।”
आयोजकों का कहना है कि बार-बार समझाया गया कि यह धार्मिक कार्यक्रम है, कोई प्रेस कॉन्फ़्रेंस नहीं। बावजूद इसके, जनाब अपनी “वीआईपी सीट” पर अड़े रहे — श्रद्धा और मर्यादा दोनों भूलकर।
वहीं, इंस्पेक्टर रोजंत त्यागी की शालीनता और संतुलित कार्रवाई की चारों ओर सराहना हो रही है। लोगों ने कहा — “अगर हर जगह त्यागी जैसे अफ़सर हों, तो न अनुशासन टूटे, न आस्था का अपमान हो।”
जब कथा में श्रद्धा से ज़्यादा चमके पैसे और पहचान
आजकल धार्मिक कथाओं में भक्ति से ज़्यादा चर्चा कथावाचकों की फीस और आयोजकों की हैसियत की होने लगी है। लाखों से बढ़कर करोड़ों में कथा करने वाले प्रवचनकार अब उन्हीं आयोजकों को चुनते हैं जिनके पास “दान” से ज़्यादा “धन” हो।
आम जनता कथा सुनने आती है, मगर वीआईपी सीटों और कैमरों की भीड़ में पीछे रह जाती है। कवि कुमार विश्वास तक अब राजनीति और कविता से आगे बढ़कर कथा-वाचन की दिशा में हैं — क्योंकि “धंधा अच्छा है”।
भक्ति की जगह दिखावे की यह संस्कृति कई सवाल छोड़ जाती है — क्या अब कथा सिर्फ़ मंच की रोशनी के लिए है, या आत्मा की रोशनी के लिए भी कुछ बचा है?
