भगत सिंह कैसे बने शहीद-ए-आजम, उनके ये किस्से जान आप भी करेंगे जज्बे को सलाम

भगत सिंह कैसे बने शहीद-ए-आजम, उनके ये किस्से जान आप भी करेंगे जज्बे को सलाम

आज ही के दिन सन् 1907 में पाकिस्तान के लायलपुर में महान क्रांतिकार भगत सिंह का जन्म हुआ था वही क्रांतिकार जिसने देश की आजादी की अलख जगाई। जिसने बताया कि स्वतंत्रता के लिए अगर प्राणों की आहुति भी देनी पड़े तो भी पीछे नहीं हटा जाना चाहिए। भगत सिंह कॉलेज के समय में ही चंद्र शेखर आजाद और बाकी क्रांतिकारी शामिल थे।

नोएडा । आज ही के दिन सन् 1907 में पाकिस्तान के फैसलाबाद में लायलपुर में महान क्रांतिकार भगत सिंह का जन्म हुआ, वही क्रांतिकार जिसने देश की आजादी की अलख का दीपक जलाया। वही क्रांतिकार जिसने बताया कि स्वतंत्रता के लिए अगर प्राणों की भी आहुति देनी पड़े तो भी पीछे नहीं हटा जाना चाहिए।

कॉलेज दिनों से ही थे क्रांतिकारी

भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों में चंद्रशेखर आजाद की पार्टी के माध्यम से जुड़े। सन् 1917 में जलियांवाला हथियाकांड ने उनकी मनोदशा पर व्यापक छाप छोड़ी, उस दौरान तक वह गांधी जी के विचारों से काफी हद तक प्रेरित थे, मगर इस नरसंहार में गांधी जी की उचित प्रतिक्रिया ना मिलने से भगत सिंह को दुख हुआ और इसके बाद उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर रुख लिया। वह रास्ता, जिस पर चलकर आजादी पाई जा सकती थी।

भगत सिंह कॉलेज के समय में ही चंद्र शेखर आजाद और बाकी क्रांतिकारी जैसे सुखदेव राजगुरु, शिव वर्मा, बिजॉय कुमार सिन्हा जैसे अन्य क्रांतिकारियों से मिले। उस टोली में अंग्रजों की गुलामी और उनके दंश से पीछा छुड़ाने की एक जिद थी। यही कारण था कि कॉलेज में भी अन्य विद्यार्थियों को भी वह आजादी का पाठ पढ़ाना नहीं भूलते थे। वह लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ाई किया करते थे।

लाला लाजपत राय की मौत से हुए आहत, ऐसे लिया बदला

भगत सिंह लाला लाजपत राय के विचारों से काफी प्रेरित थे। सन् 1928 में साइमन कमीशन के विरोध में अंग्रेजों की लाठियों से लाल घायल हो गए थे, जिसके बाद उनकी मृत्यु हो गई। इसके बाद तो मानो भगत सिंह ने अंग्रेजों से लोहा लेने की ठान ली। उन्होंने लाजपत राय के हथियारे सॉन्डर्स की हत्या की साजिश रची।

दिनांक 17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह और उनकी टोली ने सॉन्डर्स की हत्या की पूरी तैयारी की। मगर इस बीच उन्होंने एक गलत व्यक्ति जॉन सॉन्डर्स की हत्या कर दी। सॉन्डर्स की हत्या से मानो पूरे पंजाब में भूचाल मच गया, पुलिस चप्पे-चप्पे पर तैनात होकर उन्हें खोज रही थी। इसी बीच उनकी मदद दुर्गा वोहरा ने की, जो कि एक क्रांतिकार भगवती सिंह वोहरा की पत्नी थीं। दुर्गा वोहरा ने उन्हें और भगत सिंह के साथियों को सही सलामत गुपचुप तरीके से पंजाब से बाहर निकाला। इसी दौरान उन्होंने पहचान छिपाने के लिए अपने बाल कटवा लिए थे।

असेंबली में किए थे बम धमाके

भगत और बटुकेश्वर दत्त ने 1929 में असेंबली में पहुंचकर बम धमाके किए। इस बीच उन्होंने पर्चे उछाले और कहा कि बहरों को सुनने के लिए धमाके की जरूरत होती है। दोनों ने ही उस दौरान अपनी गिरफ्तारी दे दी थी।

इस मामले में भगत सिंह को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। भगत सिंह ने वह बंदूक भी सरेंडर की जिससे सॉन्डर्स की हत्या की गई थी। जेल में भी भगत सिंह की टोली ने भूख हड़ताल करके अपनी मांगे मनवाई।

10 जुलाई, 1929 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत 14 लोगों को आरोपी बनाया गया। इस मामले में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा मुकर्रर की गई।

भगत सिंह के चर्चे पूरे देश में

भगत सिंह महज 23 साल के थे, जब उन्होंने देश भर में अपने साहस का ढंका बजवाया था। भगत सिंह को फांसी की सजा मुकर्रर की गई, यह बात पूरे देश में आग की तरह फैल गई। इसकी खबर यूपी के कानपुर से निकलने वाले अखबार ‘प्रताप’ और प्रयागराज से छपने वाले ‘भविष्य’ जैसे अखबारों ने उन्हें शहीद-ए-आजम की उपाधी देकर प्रकाशित की।

धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने की दी हिदायत

भगत सिंह जब अपनी फांसी का इंतजार कर रहे थे, तब अन्य कैदियों ने उन्हें हिदायत दी की वह धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें, लेकिन उन्होंने इस बात से साफ इंकार कर दिया। अपनी किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ में भगत लिखते हैं कि मैंने उस ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं किया जिसने समाज में फैली असमानता, गरीबी, अत्याचार और नृशंसता के लिए कुछ नहीं किया। अपने अंतिम पलों में भी मैं अपने विचारों पर अड़िग रहूंगा अन्यथा लोग मुझे डरपोक कहेंगे।

एक दिन पहले दी गई थी फांसी

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी एक दिन पहले यानी 23 मार्च 1931 को ही दी दी गई थी, इसकी वजह लोगों का विरोध और उपद्रव की आशंका थी, जिसकी वजह से उन्हें तड़के सुबह फंदे से लटका दिया गया था।

इसकी भनक किसी को न लगे इसलिए अग्रेजों ने उनके अंतिम संस्कार के लिए दूसरा रास्ता अख्तियार किया, उन्होंने शहीदों के शवों का सतलुज नदी पर अग्निदाह किया। इसका खबर जब लोगों को लगी तो वे सभी वहां पहुंचे जिन्हें देखकर अंग्रेजों के हाथ पांव फूल गए और वे अधजला शव छोड़ भाग खड़े हुए। इसके बाद ग्रामीणों ने उनका अंतिम संस्कार विधिपूर्वक किया।


विडियों समाचार