अमेरिका-तालिबान के बीच डील से अफगानिस्तान में कमजोर पड़ सकती है भारत की स्थिति

अमेरिका-तालिबान के बीच डील से अफगानिस्तान में कमजोर पड़ सकती है भारत की स्थिति

इंद्राणी बागची, नई दिल्ली
करीब दशकभर से भारतीय नीति-निर्माता और सुरक्षा नेतृत्व लगातार अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के वापसी की उम्मीद जता रहा है। अब इस पर फैसला होता नजर आ रहा है। शुक्रवार को, अमेरिका और तालिबान ने समन्वित बयान में इस बात का ऐलान किया कि दोनों पक्ष 29 फरवरी को शांति समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे। इस फैसले के बाद उम्मीद जताई जा रही कि शांति समझौते को दो प्रक्रिया के तहत लागू किया जाएगा। इसमें अमेरिकी सैनिकों की चरणबद्ध वापसी और ‘इंट्रा-अफगान’ संवाद शामिल है।

अमेरिका-तालिबान के बीच शांति डील का ऐलान
अमेरिका-तालिबान के बीच शांति समझौते का पहला परीक्षण अफगानिस्तान में ‘हिंसा में उल्लेखनीय कमी’ से होगा। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा, ‘इंट्रा-अफगान वार्ता जल्द ही शुरू होगी, और अफगानिस्तान के लिए एक व्यापक और स्थायी युद्ध विराम और भविष्य के राजनीतिक रोडमैप को तैयार करने के लिए मौलिक कदम का निर्माण करेगी।’ उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में स्थायी शांति की एकमात्र राह अफगानों का एक साथ आना और आगे के रास्ते पर सहमत होना है।

इस डील से क्या होगा भारत पर असर
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के दौरान भारतीय नेतृत्व के साथ अफगानिस्तान पर चर्चा हो सकती है। इसमें अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर बातचीत की संभावना है। भारत की रूचि इस बात पर है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी को लेकर टाइम लाइन के साथ सुरक्षा-काउंटर टेररिज्म का ब्यौरा क्या होगा? पूर्व में RAW से जुड़े रहे तिलक देवाशेर ने कहा, ‘भारत की दिलचस्पी पिछले दो दशक में अफगानिस्तान में किए गए निवेश और हमारे राजनयिकों, कर्मचारियों और मिशनों की सुरक्षा को सुरक्षित करना है। इसके अलावा, हम उस देश के उन स्थानों से भी सावधान रहेंगे, जो आतंकी समूहों के फलने-फूलने का आधार बन सकते हैं।’

यूएस-तालिबान में डील के पीछे पाकिस्तान का रोल
सीधे तौर पर देखें तो शांति सौदा पाकिस्तान के लिए एक तरह की जीत हो सकती है, जो हमेशा के लिए तालिबान का प्रमुख समर्थक रहा है। पाकिस्तान पर अमेरिका की ओर से दबाव डाले जाने के बाद तालिबान को बातचीत के लिए आगे आना पड़ा। भले ही पाकिस्तान ने इसमें अहम भूमिका निभाई लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि पाकिस्तान बावजूद इसके एफएटीएफ ग्रे सूची से बाहर नहीं रह सका, जिसकी चाहत खुद पाक पीएम इमरान खान की भी थी।

डील से क्या अफगानिस्तान में कमजोर पड़ेगी भारत की स्थिति
अफगानिस्तान में पूर्व राजदूत गौतम मुखोपाध्याय ने कहा, ‘युद्ध और आतंकवाद से जूझ रहे अफगानिस्तान के लोगों को दशकों के बाद शांति की संभावना जगी है। इंट्रा-अफगान वार्ता के किसी भी अवसर का स्वागत किया जाना चाहिए और एक मौका दिया जाना चाहिए। लेकिन अफगान अमेरिका के साथ रणनीतिक राजनीतिक और सैन्य साझेदार के बजाय एक सूत्रधार के रूप में हो। अफगानों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सभी राजनीतिक समर्थन की आवश्यकता है।’