Bihar Politics: उपेंद्र कुशवाहा नीतीश संग, जदयू की पकी हांडी में तेजस्वी का हाथ
पटना : इस समय बजट से सदन गर्म है। सदन की गर्मी बाहर भी छाई है। एक से एक विकास योजनाओं का जिक्र हो रहा है। हर क्षेत्र में विकास की बात और उन्हीं बातों में माननीयों की चुहलबाजी, कटीले कटाक्ष। लेकिन इसी बीच खामोशी से एक राजनीतिक घटना भी फलफूल चुकी है। नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा काफी पास आ चुके हैं। शर्त उपेंद्र की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के जनता दल यूनाइटेड (जदयू) में शामिल होने की है।
दादा वशिष्ठ नारायण सिंह मामले को लगभग पटरी पर ला चुके हैं। पार्टी के एक हिस्से से विलय की खामोश खिलाफत से हिचक रहे उपेंद्र अब पार्टी को जल्द ही हानि-लाभ बता एक निर्णय ले सकते हैं। हालांकि रालोसपा में विलय से पहले ही भगदड़ की नौबत आ गई। शुक्रवार की दोपहर इधर उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार की बातचीत शुरू हुई, उधर रालोसपा के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र कुशवाहा और प्रधान महासचिव निर्मल कुशवाहा सहित राज्य स्तर के 25 से अधिक नेता राजद में शामिल हो गए। इसका फायदा भले ही राजद को कुछ खास न हो, लेकिन नीतीश की पकी हांडी में तेजस्वी का हाथ पड़ गया।
नीतीश-उपेंद्र पहले साथ ही रहे हैं। दोनों के फिर साथ आने के अपने मायने हैं। लव (कुर्मी) और कुश (कुशवाहा) गठबंधन प्रदेश के जातिगत समीकरण में मजबूती देता है। इसलिए चुनाव में सीटें कम होने से चिंतित नीतीश को उपेंद्र की जरूरत है तो केवल अपनी जाति के सहारे विशेष कुछ हासिल न कर पाने के कारण उपेंद्र को भी। यह रालोसपा के जदयू में विलय से ही संभव है। दोनों दलों के जिंदा रहने पर जदयू के लिए उपेंद्र उतने उपयोगी नहीं। उपेंद्र को देने के लिए राज्यपाल कोटे की विधान परिषद की सीट है, कोटे में बचा मंत्री पद है।
चर्चा में तो शरद यादव की राज्यसभा की सीट भी है जो जदयू से अलग होने के बाद भी उसी का सदस्य बने रहने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में है जिस पर फैसला जल्द आने की संभावना है। उस सीट का कार्यकाल एक साल बाकी है। उपेंद्र के पास फिलहाल कुछ नहीं है। चुनाव में ओवैसी, ममता आदि का साथ भी कुछ नहीं दिला पाया। वहीं दूसरी ओर नीतीश अब उम्र के उतार पर हैं तो उन्हें जदयू के भविष्य की भी चिंता हो रही है। ऐसे में 13-14 मार्च को रालोसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कुछ चौंकाने वाले फैसले आने की संभावना है। माना जा रहा है कि रालोसपा का जदयू में विलय हो जाएगा। इसकी पटकथा तो विधानसभा चुनाव बाद ही लिखनी शुरू हो गई थी, पर तेजी इसी सप्ताह आई। मध्यस्थ की भूमिका में जदयू के वरिष्ठ नेता वशिष्ठ नारायण सिंह हैं।
नीतीश से उपेंद्र की मुलाकात से लेकर हर मुलाकात को मीडिया में सरका कर वह सकारात्मक संदेश देते रहे। विलय को लेकर जब रालोसपा से विरोध के स्वर उठे तो उसे भी दादा ने कोई तवज्जो नहीं दी, यह कहकर कि साथ का मतलब तो विलय ही होता है। इस मसले पर उपेंद्र भी हंसकर ही निकलते रहे हैं। अभी सोमवार को दोनों ने साथ-साथ कोरोना टीका लगवाया और साथ होने का संदेश दिया। नीतीश के लिए उपेंद्र इसलिए उपयोगी हैं, क्योंकि नीतीश को अपना आधार बढ़ाने के लिए कुशवाहा वोटों की जरूरत है। इसीलिए वशिष्ठ नारायण सिंह के बजाय उमेश कुशवाहा को प्रदेश अध्यक्ष बना उन्होंने यह समीकरण साधने की कोशिश की। लेकिन वे जानते हैं कि कुशवाहाओं के बीच उपेंद्र का कद उमेश से बड़ा है। इसलिए उपेंद्र को शामिल करा वो इस जाति की अलग राजनीतिक धारा ही खत्म कर देना चाहते हैं, ताकि विपक्ष व गठबंधन दोनों को ही उनकी ताकत का अहसास होता रहे।
लव-कुश गठबंधन बिहार बहुत पुराना है। वर्ष 1934 में बिहार में कोइरी, कुर्मी और यादव जातियां, ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती देने के त्रिवेणी संघ के रूप में एक हुईं। इसका गठन यदुनंदन प्रसाद मेहता, शिवपूजन सिंह और सरदार जगदेव सिंह यादव ने किया था। वर्ष 1937 में ये चुनाव भी लड़े, लेकिन दो सीट ही जीत सके। हार का बड़ा कारण उस समय मैटिक पास का वोटर होना था। इसलिए इस जाति का बहुत बड़ा भाग वोट से वंचित रहा। आजादी के बाद इनमें फूट पड़ी और यादव कांग्रेस के साथ चले गए और कुर्मी व कोइरी समाजवादी विचार के साथ।