एएसआई की वो रिपोर्ट जिसे सुप्रीम कोर्ट ने माना महत्वपूर्ण, स्मारक, शिलालेख व अवध क्षेत्र बने गवाह
खास बातें
- कोर्ट ने खुदाई में मिले स्मारकों, शिलालेखों और अवध क्षेत्र के इतिहास को भी संज्ञान में रखा
- अदालत ने सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील द्वारा हंस बेकर की किताब का हवाला देने पर टिप्पणी की
- एएसआई की रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के तमाम रिपोर्टों को महत्वपूर्ण माना है। कोर्ट ने खुदाई में मिले स्मारकों, शिलालेखों और अवध क्षेत्र के इतिहास को भी संज्ञान में रखा। इसी के साथ अदालत ने सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील द्वारा हंस बेकर की किताब का हवाला देने पर विस्तृत टिप्पणी की है। फैसले में बेकर की उसी किताब से जन्मस्थान पर विस्तार से लिखा है।
अदालत के अनुसार एएसआई की रिपोर्ट के एक और पहलू पर ध्यान देने की जरूरत है। रिपोर्ट में रामायण के स्थलों की पहचान करने के लिए प्रो. बीबी लाल द्वारा की गई खुदाई का वर्णन किया गया है। यह खुदाई साल 1975-76 में की गई थी। विवादित ढांचे के दक्षिण की ओर, कुछ खंदक की खुदाई की गई और बीबी लाल ने कहा कि कुछ स्तंभों को बनाए रखने वाले खंभे पाए गए और बाबरी मस्जिद के दक्षिण में एक संरचना दिखाई गई।
विवादित स्थल की खुदाई उस क्षेत्र को छोड़कर जिस पर मेकशिफ्ट संरचना बनाई गई थी, जिसे एएसआई ने पांच मार्च 2003 को उच्च न्यायालय के आदेशों के तहत किया था। एएसआई द्वारा विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत किया गया है जिसे अलग से ध्यान में रखा गया। चार इतिहासकारों द्वारा साल 1975-76 में बीबी लाल द्वारा की गई कुछ खुदाई के आधार पर बनाई गई राय अब एएसआई द्वारा किए गए विस्तृत अध्ययन के मद्देनजर अधिक प्रासंगिक नहीं रह गई है।
-सुप्रीम कोर्ट
बेकर ने अयोध्या के तीन नक्शे तैयार किए थे
बेकर ने अपनी पुस्तक में अयोध्या महात्म्य पर विस्तृत रूप से विचार किया है, जिसमें वेंकटेश्वर प्रेस, मुंबई द्वारा प्रकाशित अयोध्या महात्म्य का विचार भी शामिल है और साथ ही विभिन्न स्रोतों से प्राप्त कुछ पांडुलिपियों के बारे में भी बताया गया है। उन्होंने बोडालिन लाइब्रेरी, ऑक्सफोर्ड, लंदन, वृंदावन अनुसंधान संस्थान, ओरिएंटल इंस्टीट्यूट बड़ौदा और अनुसंधान संस्थान, जोधपुर से प्राप्त पांडुलिपियों की तुलना की है।
तुलना और सभी प्रासंगिक पहलुओं पर विचार करने के बाद बेकर ने कहा है कि जन्मस्थान का मूल स्थान तुलनात्मक रूप से निश्चित है क्योंकि यह स्थान से प्रमाणित होता है। बाद में बेकर द्वारा बयान दिया गया कि उपरोक्त सभी कठिनाइयों के बावजूद, जन्मस्थान मंदिर का मूल स्थान तुलनात्मक रूप से निश्चित है क्योंकि यह बाबर द्वारा निर्मित मस्जिद के स्थान से प्रमाणित होता हैॉ।
इसके निर्माण की सामग्री में पहले के हिंदू मंदिर इस्तेमाल किए गए थे और अब भी दिखाई दे रहे हैं। आम सहमति है कि जन्मस्थान को कब्जा कर मस्जिद बनी है। इतना ही नहीं मूल मंदिर के विनाश के बाद मस्जिद के उत्तर की ओर एक नया जन्मस्थान मंदिर बनाया गया था।
साल 1889 में प्रकाशित रिपोर्ट पर भी किया गौर
साल 1889 में ही प्रकाशित एएसआई की एक और रिपोर्ट पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिसका शीर्षक ‘जौनपुर का शर्की वास्तुकला’ है, जिसमें अवध के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के जाफराबाद, सहत-महत और अन्य स्थानों का जिक्र है। इस प्रकार, एएसआई स्पष्ट करता है कि अयोध्या में बाबर की मस्जिद उसी स्थान पर बनाई गई थी जहां भगवान राम का जन्मस्थान था।
एएसआई की एक अन्य रिपोर्ट में स्मारक पुरावशेषों और शिलालेखों रामचंद्र का जिक्र करते हुए यह उल्लेख किया कि भगवान राम का जन्म वहीं हुआ था। रिपोर्ट में कहा गया है कि जन्मस्थान मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया था और 930 हिजरी में एक मस्जिद का निर्माण किया गया था।
एएसआई रिपोर्ट में वृहद भवन के खंडित अवशेषों पर बड़े निर्माण का मिला था संकेत
उच्च न्यायालय की लखनऊ खंड पीठ के निर्देश पर 12 मार्च से 7 अगस्त 2003 के बीच एएसआई ने विवादित स्थल पर खुदाई की। 82 स्थानों पर गहरी खाइयां खोदी गईं। कुछ जगह और गड्ढे खोदे गए। खुदाई से मिले साक्ष्यों व वस्तुओं के आधार पर विशेषज्ञों ने अलग-अलग कालों का निर्धारण किया। फिर कालों के आधार पर बताया कि जो संरचनाएं मिलीं उससे संकेत मिलते हैं कि उस स्थान पर कभी खंभों वाला निर्माण था। इसमें छत व फर्श के अवशेष होने के भी संकेत मिले हैं। लगभग एक हजार वर्ष पहले तक इस जगह किसी प्रकार के नए निर्माण होने का कोई अवशेष नहीं मिलता है।
प्रारंभिक काल (11वीं-12वीं ईसवी) के आधार पर एक बृहद निर्माण के साक्ष्य मिले, जिसकी उत्तर-दक्षिण लंबाई 50 मीटर थी। पर, प्रतीत होता है कि इसका जीवन बहुत लंबा नहीं था। यह जो निर्माण था उसी के भग्नावशेष पर एक बड़े निर्माण कार्य के संकेत मिलते हैं। इसी पर 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में विवादित ढांचा खड़ा किया गया। विवादित स्थल के ठीक नीचे 50 गुणा 30 मीटर आकार वाला एक बड़ा स्मारकीय स्थापत्य मौजूद है। 50 स्तंभ वाले ईंट निर्मित आधार के सुबूत भी मिले। इनके ऊपर बलुआ पत्थर से निर्माण कराया गया है।
कहा जा सकता है कि उत्तर-दक्षिण क्षेत्र में एक बड़े आकार की दीवार थी, जो मूल रूप से एक बड़े निर्माण से जुड़ी थी। दीवार 60 मीटर लंबी थी जो इस समय 50 मीटर ही है। विवादित ढांचे का केंद्रीय कक्ष (मध्य हिस्सा) इसी दीवार के ठीक ऊपर गिरा।
विशेषज्ञों ने कहा कि इससे आगे खुदाई इसलिए नहीं की जा सकी क्योंकि इसी जगह पर अब रामलला का अस्थायी मंदिर बना है। यह लगभग 15 गुणा 15 मीटर का है। इसके ठीक मध्य बिंदु के पूर्वी ओर एक गोलाकार कटान है, जो पश्चिम को जा रही है। यह बड़े आकार की ईंटों से बने फर्श पर स्थित है, जो यह बताता है कि यहां कोई महत्वपूर्ण वस्तु मौजूद थी।
गुप्त काल व उत्तर मुगलकाल के बीच कोई निर्माण नहीं
उत्तर भारतीय मंदिरों के लक्षण
प्राकृतिक स्थल के ऊपर जो सबसे निचला निक्षेप है वह ओपदार (चमकदार) काले मृद (मिट्टी) भांड (बर्तन) का काल है। कार्बन डेट के आधार पर इसका काल ईसा पूर्व 9वीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है। अन्य कुछ कार्बन डेट के आधार पर निश्चित रूप से इसे 300 से 600 ईसा पूर्व माना जाता है। इसे लगभग एक हजार ईसा पूर्व तक ले जाया जा सकता है। यानी 1300 ईसा पूर्व यहां मानव क्रियाकलाप हो रहे थे।
पुरातात्विक साक्ष्य देखते हुए कहा जा सकता है कि विवादित स्थल के ठीक नीचे एक बड़ा निर्माण था। दसवीं शताब्दी से लेकर विवादित ढांचे के निर्माण तक यहां निरंतरता मिलती है। सजी हुई ईंटे मिलना इसका साक्ष्य हैं। देवी युग्म (मिथुन) की खंडित मूर्तियां मिलीं हैं।
उकेरी गई आकृतियां जैसे आम्लक, कलश, कपोल कली, अर्धचंद्र, गोलाकार दीवार, स्तंभ दंड, कमल के चिह्न, चक्राकार आकृति, काली स्तरीय चट्टानों का बना अष्टकोणीय स्तंभ दंड, बीच में उत्तर को परनाला, नाली और एक बड़े निर्माण से जुड़े 50 स्तंभों की मौजूदगी पाई जाती है। यह सब उत्तर भारतीय मंदिरों में पाया जाता है।