चंडीगढ़। पंजाब में पांच साल सत्ता भोगने के बावजूद वर्ष 2022 के चुनाव में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई है उससे उबरने के लिए पार्टी ने बदलाव का दांव खेला है। ‘महाराजा’ अमरिंदर सिंह के बजाय अब ‘राजा’ अमरिंदर सिंह पर दांव खेला है।

वर्ष 2024 के लोकसभा और 2027 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को उभारने के लिए जिस तरह से युवा चेहरे को आगे लाया गया है उससे लगता है कि कांग्रेस ने पुरानी पीढ़ी को अब बाय-बाय करने का मन बना लिया है। पार्टी का यह फैसला अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग के लिए भी चुनौती है, लेकिन जिस तरह से पार्टी ने अपनी पुरानी पीढ़ी को चलता करके कमान नई पीढ़ी को सौंपने की कार्रवाई शुरू की है, उससे पार्टी नेताओं को एक उम्मीद जरूर जगी है।

अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग के लिए यह राह उतनी आसान नहीं है, जितनी 2017 के समय ‘महाराजा’ अमरिंदर सिंह के लिए थी। बुरी तरह से टूटी हुई पार्टी को एकजुट करना तो राजा वड़िंग के लिए चुनौती है ही, साथ ही सत्ता से बाहर रहकर उस आम आदमी पार्टी की सरकार को घेरना भी बड़ी चुनौती है, जिसके कंधों पर पिछला कोई बोझ नहीं है।

यानी जिन मुद्दों को लेकर राजा वड़िंग भगवंत मान का घेराव करेंगे, उन मुद्दों को पांच साल सत्ता में रहते हुए क्यों हल नहीं किया गया, इसका जवाब तो राजा वड़िंग को भी देना होगा। भगवंत मान जैसा वाकपटु उनके लिए परेशानी पैदा कर सकता है। राजा वड़िंग इसका स्वाद हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा के सत्र में उस समय चख चुके हैं, जब भगत सिंह के जन्म दिन को लेकर भगवंत मान ने उन्हें घेर लिया था।

राजा वड़िंग के लिए जितनी बड़ी चुनौतियां बाहरी हैं, उससे कहीं ज्यादा बड़ी चुनौतियां आंतरिक हैं। कांग्रेस ने उनका चयन ही इसलिए किया है कि वह तेजतर्रार नेता हैं। विरोधियों से भिड़ने के मामले में वह कभी पीछे नहीं हटते, लेकिन असल सवाल तो पार्टी के लोगों को साथ चलने को लेकर है।

प्रधानगी संभालने से पूर्व ही सुरजीत सिंह धीमान जैसे ओबीसी वर्ग के नेता को जिस तरह से उनकी मुखालफत करने पर बाहर का रास्ता दिखाया गया है, उससे यह साफ है कि इस तरह के कई कांटे उनकी राह में और भी बिछे हुए हैं। वह उन कांटों को बीनेंगे या फिर रास्ते से हटाएंगे, यह उन पर निर्भर करता है।

अपने पहले बयान में राजा वड़िंग ने कहा है कि वह सभी को साथ लेकर चलेंगे। यह बयान सुनने में जितना अच्छा लगता है उस पर अमल करना उतना ही मुश्किल होता है। उनसे पहले के पार्टी के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू भी यही कहते रहे हैं कि वह अपना कोई धड़ा नहीं बनाएंगे और सभी को साथ लेकर चलेंगे, लेकिन अपने महज छह माह के अल्प कार्यकाल में सभी को साथ लेकर चलने वाले नवजोत सिद्धू अकेले ही रह गए।

नवजोत सिद्धू के अलावा माझा ब्रिगेड से निपटना भी आसान नहीं है। इसी ब्रिगेड के कारण प्रताप सिंह बाजवा को पछाड़कर कैप्टन अमरिंदर सिंह सत्तासीन हुए थे और इसी के कारण कैप्टन को सत्ता भी गंवानी पड़ी। वर्ष 2022 के चुनाव में पार्टी की बड़ी हार के बावजूद माझा ब्रिगेड फिर से विधानसभा में पहुंच गई है।

इस ब्रिगेड के सभी नेता सीनियर हैं, जिनसे पार पाना वड़िंग के लिए आसान नहीं होगा। हालांकि पार्टी ने इस पूरी ब्रिगेड को दरकिनार कर दिया है। इनकी प्रताप सिंह बाजवा के साथ भी नहीं बनती, लेकिन पार्टी ने उन्हें विपक्ष का नेता बना दिया। कहीं ऐसा न हो कि सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा करने के बजाय पार्टी नेता खुद एक-दूसरे से ही उलझते रहें।

देखा जाए तो पंजाब की स्थिति भी कांग्रेस की केंद्रीय लीडरशिप जैसी ही हो गई है, जहां पुराने नेताओं का एक ‘जी-23’ नामक समूह नए नेताओं को जमने नहीं दे रहा है। गांधी परिवार के करीबी सभी लोग यही चाहते हैं कि राहुल गांधी ही फिर से प्रधान बनें, जबकि पार्टी के कई सीनियर नेता अब बदलाव भी चाहते हैं। ऐसा ही बदलाव पार्टी ने प्रदेश स्तर पर कर दिया है।

प्रताप सिंह बाजवा को छोड़कर शेष सभी नए नेताओं को पार्टी की कमान सौंपी गई है। पार्टी प्रधान अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग, कार्यकारी भारत भूषण आशू, विधानसभा में पार्टी के नेता प्रताप सिंह बाजवा और उपनेता डा. राजकुमार चब्बेवाल सभी राहुल गांधी की पसंद हैं। ये सभी जहां राज्य के विभिन्न क्षेत्रों माझा, मालवा और दोआबा से लिए गए हैं, वहीं धर्म और जाति का भी संतुलन बनाने की कोशिश की है, लेकिन क्या ये समीकरण पार्टी को उसके पुराने वोट बैंक को वापस लाने में सक्षम हो पाएंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।