नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 के तहत हिंदू महिलाओं को दिए गए संपत्ति अधिकारों की जटिल व्याख्याओं को सुलझाने का फैसला लिया है, जो संभवतः छह दशकों से चला आ रहा एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है।सवाल यह है कि क्या एक हिंदू पत्नी को अपने पति द्वारा दी गई संपत्ति पर पूर्ण स्वामित्व का अधिकार प्राप्त होगा, भले ही वसीयत में प्रतिबंध लगाए गए हों।
न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ, जो इस मुद्दे पर कानूनी रस्साकशी से जूझ रही है, जिसके कारण पिछले छह दशकों में 20 से अधिक फैसले आ चुके हैं, ने इस मुद्दे को हमेशा के लिए निपटाने के लिए सोमवार को एक बड़ी पीठ की स्थापना का आह्वान किया।
यह मामला कानूनी शब्दावली से कहीं आगे तक जाता है। लाखों हिंदू महिलाओं के लिए, धारा 14 की व्याख्या यह निर्धारित कर सकती है कि उन्हें हस्तक्षेप के बिना संपत्ति का उपयोग करने, हस्तांतरित करने या बेचने की स्वायत्तता है या नहीं।
वर्तमान मामले की जड़ें लगभग छह दशक पुरानी हैं, जो 1965 में कंवर भान नामक व्यक्ति द्वारा निष्पादित वसीयत से जुड़ी हैं, जिसमें उसने अपनी पत्नी को उसके जीवनकाल में एक भूखंड पर कब्जा करने और उसका आनंद लेने का अधिकार दिया था, लेकिन इस शर्त के साथ कि उसकी मृत्यु के बाद संपत्ति उसके उत्तराधिकारियों को वापस कर दी जाएगी।
कई साल बाद पत्नी ने जमीन बेच दी और खुद को इसका पूरा मालिक बताया। जिसके बाद बेटे और पोते ने बिक्री को चुनौती दी और मामला अदालतों में पहुंचा, जिससे हर स्तर पर विरोधाभासी फैसले सामने आए।ट्रायल कोर्ट और अपीलीय अदालत ने पत्नी का पक्ष लिया और 1977 में सुप्रीम कोर्ट के तुलसाम्मा बनाम शेषा रेड्डी मामले के एक फैसले का हवाला दिया, जिसमें हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14(1) की व्यापक व्याख्या करते हुए हिंदू महिलाओं को पूर्ण स्वामित्व अधिकार प्रदान किए गए थे।
हालाँकि, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने इससे असहमति जताते हुए कर्मी बनाम अमरू (1972) में सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि वसीयत के विशिष्ट प्रतिबंध धारा 14(2) के तहत एक महिला के संपत्ति अधिकारों को सीमित कर सकते हैं।यह विवाद अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है, जहां पीठ ने न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती के तुलसाम्मा फैसले में उठाए गए सवालों की याद दिलाई। पूर्व न्यायाधीश ने धारा 14 के विधायी प्रारूपण को “वकीलों के लिए स्वर्ग” और वादियों के लिए अंतहीन उलझन बताया था।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14(1) ने हिन्दू महिलाओं को संपत्ति पर पूर्ण अधिकार देने के लिए एक प्रगतिशील कदम उठाया था, लेकिन धारा 14(2) में कुछ अपवाद दिए गए थे।
इसमें यह कहा गया था कि वसीयत या उपहार में दी गई संपत्ति स्वचालित रूप से पूर्ण स्वामित्व में नहीं बदल सकती। न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने इस विभाजन को स्वीकार करते हुए कहा कि तुलसम्मा के बाद दो विचारधाराएं विकसित हुई हैं। एक जो हिन्दू महिलाओं को अधिकार देने की ओर है और दूसरी संपत्ति अधिग्रहण के तरीके और हस्तांतरण के तरीके को देखकर विचार करती है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर स्पष्टता की आवश्यकता पर बल दिया और कहा कि इस विषय पर कानूनी स्थिति को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है। अब एक बड़ी पीठ को यह निर्णय लेना होगा कि क्या वसीयत में दी गई शर्तें हिन्दू महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को धारा 14(1) के तहत सीमित कर सकती हैं या नहीं।